रतलाम । प्रकृति शरीरिक सत्ता, माया मानसिक सत्ता और ब्रह्म आध्यात्मिक माया है। माया मापने का पैमाना है, प्रकृति सिद्घांत का चलन। प्रकृति ब्रह्मा के पहले से विद्यमान है। माया उसके बाद प्रकट हुई। माया स्थिर नही है। जो मनुष्य पहले जिसकी दृष्टी में सही था भविष्य में वही उसकी दृष्टी में गलत लगने लगता है। जो आज सुन्दर लग रहा है वही कल बदशक्ल लगने लगता है। समय और परिस्थति के अनुसार मनुष्य का मनुष्य के लिए विचार बदलता है या अपेक्षा रूप बदलती है। विश्व और विश्वास में जो अच्छा होता है वही बुरा हो जाता है। उक्त विचार भानपुरा पीठ से अनंत विभूषित भानपुरा पीठाधीश्वर जगतगुरू शंकराचार्य श्री ज्ञानानंद जी तीर्थ ने पूर्व धर्मस्व मंत्री स्व. पं. मोतीलाल दवे के द्वारा स्थापित 38 वां अ.भा. रामायण मेले के अंर्तगत प्रसारित अपने संदेश में व्यक्त किए। उन्होने कहा कि मनुष्य का प्रकृति पर अधिकार नही है। मनुष्य प्रकृति की दया पर निर्भर करता है। मनुष्य ब्रह्म और माया के सहयोग से संस्कृति का लाभ प्राप्त कर सकता है। संस्कृति को नष्ट करने का अधिकार मनुष्य को नही है। मनुष्य संस्कृति से सुसंस्कृति कर सकता है। मनुष्य का कर्तव्य पशु पक्षी या अन्य जीव को नष्ट करने का नही उन्हे जीने देने का है। प्रकृति मनुष्य को अन्य जीवों से अलग नही मानती। उन्हे भी जीवित रहने के लिए उपयोगी शक्तियां और बुद्घी प्रदान की है।मनुष्य शरीर से मनुष्य की पहचान पति, पत्नि, पुत्र, पुत्री तक सीमित होती जा रही है। मनुष्य को वस्तुपरख नही आत्मपरख होना चाहिए। प्रकृति का उपकार मानना, उपकार करना, उपकार कराना चाहिए। उक्त जानकारी रामायण मेले के संयोजक पं. राजेश दवे ने दी है।