अमेरिकन विदेश नीति-ढूलमुल और असफल

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका विश्व में सबसे अधिक शक्तिशाली देश होकर उभरा है। यही स्थिति वर्तमान तक बनी हुई हैं। आज भी अमेरिका को विश्व का सबसे अधिक शक्तिशाली देश माना जाता है। यद्यपि रूस और चीन अमेरिका को बराबरी की टक्कर दे रहे हैं। द्वितीय विष्व युद्ध अमेरिका और रूस में मिलकर हिटलर और उसके साथियो के खिलाफ लड़ा था। किन्तु उसके बाद दुनिया में अपना प्रभुत्व जमाने के लिए रूस और अमेरिका के बीच प्रतिस्पर्धा षुरू हो गई। इस प्रतिस्पर्धा को षीत युद्ध के नाम से जाना जाता है। यह षीत युद्ध आज भी किसी न किसी रूप में चल रहा हैं। चीन का महाषक्ति बन कर उभरने के बाद तनातनी का षीत युद्ध बढ़ता ही जा रहा हैं।
द्वितीय विष्व युद्ध की समाप्ति के बाद कई देषो के स्वरूप और सीमाओ में परिवर्तन आया। ऐसा ही एक देष कोरिया हैं। रूस और अमेरिका ने कोरिया का विभाजन दो भागो में कर दिया- उत्तरी कोरिया और दक्षिणी कोरिया। दोनों अलग-अलग  विचार धाराओं के देश बन गए हैं। 1950 में उत्तरी कोरिया ने दक्षिणी कोरिया पर आक्रमण कर दिया। यू.एन.ओ. ने इसे उत्तरी कोरिया का दक्षिणी कोरिया पर आक्रमण मानकर कुछ देषो की सेनाओ को इकट्ठा कर के भेजा। इसमें मुख्य भुमिका अमेरिका की थी। यह युद्ध 1953 तक चला। असंख्य सैनिकों के मारे जाने के बाद भी कोई निर्णय नही निकल पाया और दोनो भाग आज तक अलग-अलग ही हैं। उत्तरी कोरिआ में डिक्टेटरषीप हैं और दक्षिणी कोरिआ में प्रजातं़त्र है। उत्तरी कोरिया में तीन पीढ़ियों से एक ही परिवार का षासन है और वर्तमान षासक किम विष्व षान्ति के लिए खतरा बना हुआ हैं। उसने लम्बी दूरी की मिसाइलें और एटम बम बना लिए हैं। वह आए दिन अमेरिका को धमकी देता रहता है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प ने बातचीत से समस्या हल करने की कोशिश की परन्तु सफलता नहीं मिली। यह दुनिया में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका की विदेश नीति के असफल होने की शुरुआत थी।
इसके बाद अमेरिका ने वियतनाम में 1955-1975 तक एक बहुत लम्बा युद्ध लड़ा। यह भी कोरिया की तरह उत्तरी वियतनाम और दक्षिणी वियतनाम के बीच था। उत्तरी वियतनाम कम्युनिस्ट देषो रूस और चाइना द्वारा समर्पित था। करीब बीस वर्श चले इस युद्ध मे अमेरिका को जन-धन की बहुत हानी हुई। इतना लम्बा युद्ध लड़ने के बाद भी किसी भी पक्ष की निर्णायक जीत नहीं हुई। अपने देष से इतनी दूर करीब बीस वर्श तक युद्ध लड़ने में अमेंरिका के कितने सैनिक मरे होंगें और कितना धन खर्च हुआ होगा इसका अनुमान लगाना आसान नहीं हैं। यह भी अमेरिका की सुरक्षा और विदेश नीति की असफलता का ही प्रतीक हैं।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया दो विचार धाराओं में बंट गई- प्रजातंत्र और साम्यवादी अधिनायकवाद। अमेरिका प्रजातांत्रिक देशों का नेता बनकर उभरा। ऐसा लगता है अमेरिका के मन में प्रजातांत्रिक देषों का नेता बनने और दुनिया का चौकीदार बनना है। अमेरिका ने कोरिया और वियतनाम युद्ध से भी सबक नहीं सीखा। कई देषों में छोटे-छोटे युद्ध में उलझता रहा किन्तु कहीं भी उसे निर्णायक जीत नहीं मिली।
अफगानिस्तान में भी अमेंरिका की विदेश और सुरक्षा नीति पूरी तरह असफल हुई। जब रूस ने अफगानिस्तान में अपनी समर्थित सरकार को तालिबानी आतंकवादियो के हमले से बचाने के लिए1979 में अपनी सेना भेजी तब अमेंरिका ने आतंकवादियो की सहायता की। वास्तव में तालिबान की उत्पत्ति रूस का विरोध करने के लिए अमेरिका द्वारा ही की गई थी। रूसी सेना तालिबान के खिलाफ युद्ध में सफल नहीं हो सकी और लम्बा युद्ध लड़ने के बाद 1983 में वापस चली गई। तब अफगानिस्तान पर तालिबान ने कब्जा कर लिया। तालिबानी षासन को उखाड़ने के लिए अमेरिकी सेना ने 2001 में अफगानिस्तान पर आक्रमण कर तालिबानी षासन को समाप्त किया। अमेरिकी सेना जुलाई 2021 तक अफगानिस्तान में रही। इन बीस वर्शो में अफगानिस्तान की प्रजातांत्रिक सरकार को समर्थन और सुरक्षा देने के लिए अमेंरिका ने बहुत नुकसान उठाया। अमेरिकी सैनिको के मारे जाने से अमेरिका के नागरिक नाराज़ हो गए और उन्होंने वहां की सरकार पर अपने सैनिको को अफगानिस्तान से वापस बुलाने के लिए दबाव बनाया। डोनाल्ड ट्रम्प ने उनके राश्ट्रपति चुनाव अभियान के समय उन्होने अमेरिकी सेना को वापस बुलाने का वादा किया था। अगले चुनाव के पूर्व उन्होने तालिबान से वार्ता की और अपनी सेना अफगानिस्तान से हटाने की घोषणा की। इस वादे को जो बाइडन ने जुलाई 2021 मे पूरा किया। स्पश्ट है कि अफगानिस्तान में भी अमेंरिका की नीतियां पूरी तरह असफल रहीं। 20 वर्श तक तालिबान से युद्ध लड़ने के बाद भी अमेरिका तालिबान को समाप्त नहीं कर पाया। उसके बाद तालिबानी अफगानिस्तान में जो कर रहे है वह तो सभी जानतें हैं।
पाकिस्तान अमेंरिकी विदेष और सुरक्षा नीति की असफलता का बहुत बड़ा उदाहरण है। पाकिस्तान बनने के बाद अमेरिका ने उसे बहुत अधिक सैनिक और आर्थिक सहायता दी। इसके दो कारण रहें है – अमेंरिका का अपना स्वार्थ और भारत की नीतिया। जब अमेरिका और रूस के बीच में षीत युद्ध प्रारम्भ हुआ तब अमेरिका को रूस को रोकने के लिए उसके निकट एक मित्र देष की तलाश थी। प्रधानमंत्री नेहरू साम्यवादी विचार धारा से प्रभावित थें। सीधे रूसी गुट में शामिल होने के बजाय उन्होंने युगोस्लाविया में मार्शल डिटो और मिश्र के नासिर के साथ मिलकर एक निरपेक्ष गुट बनाया जो नॉन अलाईमेंट कहलाया। फिर भी भारत के रूस के साथ अधिक गहरे सम्बन्ध रहे। इसलिए अमेरिका ने पाकिस्तान को अपनाया और आर्थिक सहायता दी, जो कुछ हद तक आज भी दी जा रही है। परन्तु पाकिस्तान ने अमेरिका को धोखा ही दिया। पाकिस्तान ने चीन और रूस से गहरी दोस्ती कर ली और अमेरिकी इच्छा के विरूध एटम बम भी बना लिया। आज भी पाकिस्तान सहायता अमेरिका से लेता है और चीन की गोद मे पूरी तरह बैठा हुआ है। निष्चित ही यह अमेरिकी विदेष नीति की असफलता का बहुत बड़ा प्रमाण है।
आंतकवाद को लेकर भी पाकिस्तान ने हमेंषा धोखा दिया हैं। उसने ओसामा बिन लादेन को छुपाए रखा और लम्बे समय तक अमेरिका को भनक भी नहीं लगने दी। अफगानिस्तान में पाकिस्तानी सेना खुले-आम तालिबानी आतंकियो का साथ दे रहीं हैं और उनके लिए अस्पताल बना दिए है, फिर भी अमेरिका पाकिस्तान के खिलाफ कोई भी कार्रवाई नहीं कर पा रहा हैं।
यद्यपि अमेरिका दुनिया का चौकिदार बनना चाहता है परन्तु कोई भी देश उसकी बात नहीं मानता। ईरान ने उसकी इच्छा के विरूद्ध एटम बम बना लिया। सीरिया में भी वह असफल रहा। अफ्रिका में वह बढते चीनी प्रभाव को नहीं रोक पाया। आज अफ्रिका के अधिकतर देश चीन के पास गिरवी है और उसने वहां सैनिक अडडे बना लिए।
वर्तमान में चीन को लेकर भी अमेरिकी नीति सफल नहीं हुई। चीन आर्थिक और सामरिक दृष्टि से अधिक से अधिक शक्तिशाली होता जा रहा है। ट्रम्प कुछ नहीं कर पाए और जो बाइडन भी चीन के सम्बन्ध में डुलमुल दिखाई दे रहे है। इसका मूल कारण शायद यह है कि अमेरिका अपने साथी देशों का पूरा सहयोग प्राप्त नहीं कर पा रहा। इतने लम्बे समय से अमेरिकी विदेश और सुरक्षा नीति असफल होती जा रहीं है फिर भी वह सबक सीखने को तैयार नहीं हैं।

आलेख
प्रो. डी.के. शर्मा,
रतलाम (म.प्र.)
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