जाति और कुल

  • जैन दिवाकर वाणी
  • साभार:जैनदिवाकर ज्योतिपुंज खंड 6/ 298 प्रवचांश
  • जैन दिवाकर पू. गुरुदेव श्री चौथमल जी महाराज साहब प्रस्तुति:सुरेन्द्र मारू, इंदौर

जाति और कुल की उत्तमता उसकी धार्मिकता पर निर्भर है।जिसमें धर्म के संस्कार हो,नैतिकता हो,सदाचार हो-वही वास्तव में उत्तम है।वर्ण के अर्थ में जाति शब्द का प्रयोग किया जाता है। कई लोग समझते हैं कि कोई जाति अपने आप में स्वयं उत्तम है और कोई जाति अपने स्वभाव से हीन है,मगर यह धारणा भ्रमपूर्ण है।किसी वर्ण या वर्ग में जन्म लेने मात्र से कोई व्यक्ति उत्तम या अधम नहीं होता।शास्त्र में कहा है – न दीसइ जातिविसेस कोई। अर्थात मनुष्य-मनुष्य में जाति की कोई विशेषता नजर नहीं आती।सब की आकृति,शरीर और अंगोपांग समान होते हैं। उत्तम वास्तव में वही है जिसका आचार-विचार उच्चकोटि का है । जो धर्म से विहीन है, दिन-रात पाप में रहता है, जिसमें नीति के गुण भी नहीं है,उसने किसी भी जाति या कुल में जन्म क्यों न ले लिया हो,उसे उत्तम नहीं कहा जा सकता। *मनुष्य का कल्याण जाति से नहीं, गुणों से होगा ।