- जैन दिवाकर वचनामृत
- साभार : जैन दिवाकर ज्योतिपुंज खंड 6/413
- प्रवचानांश : जैन दिवाकर पूज्य गुरुदेव श्री चौथमलजी म.सा.
- प्रस्तुति : सुरेन्द्र मारू इंदौर
एक जंगल में अत्यंत ही सुंदर मन मोहक तालाब जिसका जल अत्यंत निर्मल और मधुर था। उस पर कुमुदिनी छाई हुई थी। पानी में अनेक जलचर जीव रहते और किलोलें करते थे। उसमें कछुओं की भी पर्याप्त संख्या थी।
शरद पूर्णिमा की सुंदर रात्रि थी पृथ्वी मंडल पर जैसे दूध की चादर बिछी हुई थी।स्वच्छ ज्योत्सना फैली थी। आकाश मंडल मेघों से सर्वथा विनिर्मुक्त था। चंद्रमा हँस रहा था। तारे उस हंसी में अपनी हंसी शामिल कर संसार को धवलित करने कर रहे थे। नक्षत्र मानों एकटक भूतल की ओर आंख फाड़ कर देख रहे थे। मंद – मंद वायु चल रही थी। इसी वायु के संचालन से कुमुदिनी तालाब के एक किनारे से सिकुड़ कर एक ओर चली गई थी।
अचानक एक कछुआ पानी की ऊपरी सतह पर आया तो आकाश में चंद्रदेव की अनोखी आभा देख मुग्ध हो गया। उसके लिए यह दृश्य एकदम अपूर्व था।उसकी प्रसन्नता का पार न रहा! उसने सोचा – मैं जिस आनंद का उपभोग कर रहा हूं उस आनंद की कुछ छटा अपने कुटुंबियों को भी दिखला दूं। कोई भी सुंदर दृश्य जब स्नेहीजनों को साथ लेकर देखा जाता है तब उसका सौंदर्य सौगुना बढ़ जाता है।
यह सोचकर कछुए ने पानी में डुबकी लगाई कुटुंबियों को नभमंडल की अपूर्व छटा देखने का आग्रह किया। सब तैयार होकर जब ऊपर आए तब वायु के किसी झोंके ने खुली जगह पर कुमुदिनी का आवरण डाल दिया था। उसे न ऊपर आने का मार्ग मिला और न दूसरी बार वह स्वर्गीय दृश्य ही दिखाई पड़ा।
कछुआ मन में अत्यंत ही पश्चाताप करने लगा। सोचने लगा – हाय! यदि मैं कुटुंब के मोह -जाल में न पड़ा होता है तो क्यों मुझे उस अनुपम सुख से वंचित होना पड़ता? सच है – जो संसार की ममता में डूबते हैं उन्हें सपने में भी सुख का साक्षरता नहीं हो सकता।