आज लोग इकठठा करना चाहते हैं, जबकि पहले इकठठा रहना चाहते थे-आचार्य प्रवर श्री विजयराजजी मसा
रतलाम,04 सितंबर। तृष्णा को जो जीत नहीं पाता, वह किसी को जीत नहीं पाता है। संसार मंे दुख मोह के कारण पैदा होता है। मोह, लोभ के कारण और लोभ तृष्णा के कारण पैदा होता है। तृष्णा ही असंतोष पैदा करती है। संतुष्टि के अभाव में आज लोग जीवन भर इकठठा करना चाहते है, जबकि पहले के जमाने में लोग सिर्फ इकठठा रहना चाहते थे।
यह बात परम पूज्य, प्रज्ञा निधि, युगपुरूष, आचार्य प्रवर 1008 श्री विजयराजजी मसा ने कही। छोटू भाई की बगीची में चातुर्मासिक प्रवचन देते हुए उन्होंने कहा कि तृष्णा को जीतने वाला लोभ को, लोभ को जीतने वाला मोह को और मोह को जीतने वाला दुख को जीत लेता है। ज्ञानियों के अनुसार भिक्षा का पात्र कुछ वस्तुओं से भरा जा सकता हैं, लेकिन इच्छा का पात्र कभी भरा नहीं जा सकता। इच्छा का वायरस ऐसा वायरस है, जो दूसरी, तीसरी, चैथी, पांचवी इच्छाएं पैदाकर फैलता ही रहता है। इससे व्यक्ति जीवनभर इच्छाओं में ही जकडा रहता है। हर व्यक्ति को इच्छाजयी बनकर इच्छाजीवी बनने से बचना चाहिए।
आचार्यश्री ने कहा कि सन्मति का गुण संतोष इच्छा को जीतने पर ही आता है। जीवन मे ंराग का सबसे बडा कारण तन और धन है। तन से राग छूटने पर तपस्या होगी, जबकि धन से राग छूटने पर दान होगा। तपस्या और दान दोनो से प्रसिद्धि आती है। तृष्णा का त्याग जब तक नहीं करोगे, तब तक संतोष रूपी गुण अपना नहीं पाओगे। जीवन में हमेशा याद रखो कि तृष्णा का कोई फल और कोई बीज नहीं होता। इससे मुक्त रहकर ही संतोष मिलता है और सन्मति से सदगति का मार्ग पाया जा सकता है।
आरंभ में उपाध्याय प्रवर श्री जितेश मुनिजी मसा ने आचारण सूत्र का वाचन किया। तरूण तपस्वी श्री युगप्रभजी मसा के आव्हान पर कई श्रावक-श्राविकाओं ने आचार्यश्री से दान के संकल्प लिए। हैदराबाद से आए प्रमोद ललवानी ने प्रतिवर्ष 51 हजार रूपए श्री संघ को प्रदान करने की घोषणा की। संचालन विजेन्द्र गादिया ने किया।