चुनाव हारने वाले ईवीएम को कोसना बंद करें

लेखक – प्रो. डी. के. शर्मा, पत्रकार, रतलाम

महाराष्ट्र के चुनाव हारने के बाद विरोधी दल व कांग्रेस ने ईवीएम को कोसना फिर शुरू कर दिया है। जब-जब चुनाव हारते हैं, ईवीएम को कोसते हैं। आम नागरिक कांग्रेस का ईवीएम विरोधी दुखड़ा सुन-सुनकर परेशान हो गये हैं हारने वाले दल को ईवीएम को दोष देने के बजाय उनकी विश्वसनीयता क्यों समाप्त हुई इस पर विचार करना चाहिए। इस विषय पर पूर्व में लिखे आलेख को पुनः प्रसारित कर रहे हैं। उचित होगा कांग्रेस आत्मविश्लेषण करे, ईवीएम को दोष न दे।
चुनाव आयोग द्वारा संपन्न करवाए जाते हैं। वर्तमान में मतदान ईवीएम (Electronic Voting Machine) द्वारा होते हैं। जो दल या नेता को अपनी हारता है वे ईवीएम पर सवाल उठाते हैं। उनका आरोप है कि सत्ताधारी दल किसी न किसी तरह अपने पक्ष में बहुमत प्राप्त कर लेता है। यह चुनाव प्रक्रिया और उसमें लगे सभी शासकीय तंत्र पर अविश्वास प्रकट करना है। इस विषय की विवेचना करने के पहले चुनाव आयोग और ईवीएम के उपयोग के बारे में बता देना आवश्यक है।
भारतीय निर्वाचन आयोग या चुनाव आयोग एक स्वायत्त संवैधानिक संस्था है। चुनाव आयोग संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत देश में सभी चुनाव कराने के लिए जिम्मेदार है। यही संस्‍था लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा, विधान परिषद, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव करवाती है। 26 जनवरी 1950 को देश में गणतंत्र लागू हुआ और उससे एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को भारतीय निर्वाचन आयोग की स्थापना की गई। भारतीय निर्वाचन आयोग के स्थापना दिवस को राष्ट्रीय मतदाता दिवस के रूप में मनाया जाता है।
प्रारंभ के कुछ चुनावों में मतपर्ची (बैलेट पेपर) पर सील लगाकर मतदान किया जाता था। ईवीएम के आविष्कार के बाद सन् 1982 में हमारे देश में इसका उपयोग हुआ। देश में सबसे पहिले केरल के परूर विधानसभा सीट के 50 मतदान केंद्रों पर वोटिंग करने के लिए ईवीएम का उपयोग किया गया। लेकिन इस मशीन के इस्तेमाल को लेकर कोई कानून न होने की वजह से सुप्रीम कोर्ट ने उस चुनाव को अवैधानिक घोषित कर दिया। इसके बाद ईवीएम मशीन के इस्तेमाल पर चुनावों में रोक लग गई। फिर वर्ष 1989 में संसद ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संशोधन किया और चुनावों में ईवीएम के उपयोग का प्रावधान किया। ईवीएम को भारतीय चुनाव में लाना रातों-रात का खेल नहीं था। बल्कि इसके लिए एक लंबी प्रक्रिया चली थी। स्पष्ट है कि ईवीएम का प्रयोग संसद द्वारा पारित कानून के अनुसार ही हो रहा है। ईवीएम का उपयोग कई चुनावों में हो चुका है और सभी दलों की हार जीत हुई है। आजकल चुनाव आयोग और ईवीएम की आलोचना करना आम बात हो गई है। जिस किसी भी व्यक्ति अथवा दल को हार की संभावना दिखाई देती है अथवा हारता है वह ईवीएम को दोषी ठहराता है। चुनाव करवाने वाले कर्मचारियों पर सत्तारूढ़ दल के पक्ष में बटन दबाकर निर्णय करने का आरोप लगाया जाता है।
जो भी चुनाव के बारे में जानकारी रखते हैं, चुनाव करवातें हैं अथवा चुनाव लड़ते हैं वे सभी चुनाव की प्रक्रिया और ईवीएम के उपयोग के बारे में अच्छी तरह से जानकारी रखते हैं। जब बैलेट पेपर, मतपर्ची, से चुनाव होते थे तब अराजकतत्व मतपर्ची लूटकर उन पर उम्मीदवार विशेष के पक्ष में सील लगा देते थे। सभी जानते हैं कि वर्तमान व्यवस्था में ईवीएम में डले मतों का हिसाब सभी उमीद्वारों के प्रतिनिधियों को दिया जाता है। सुरक्षा व्यवस्था भी पोलिंग बूथ पर काफी कड़ी होती है और चुनाव में गड़बड़ी की घटनाएं बहुत कम होने लगी हैं। यदि गड़बड़ी होती है तो चुनाव आयोग फिर से चुनाव करवाता है।
अब विचार करें ईवीएम की आलोचना करने वाले राजनीति के शातिर खिलाड़ियों पर जो अपने पक्ष में निर्णय न आने पर ईवीएम और चुनाव आयोग की आलोचना करते हैं। दुर्भाग्य से यह आलोचना वे लोग कर रहे हैं जो स्वयं ईवीएम के द्वारा चुनाव जीत चुके हैं। इससे यह माना जाना चाहिए कि वे ईवीएम में गड़बड़ी करवाकर ही जीते थे। ऐसे लोगों के लिए चुनाव जीते तो ईवीएम अच्छी और हारे तो बुरी। ईवीएम के द्वारा ही सभी दलों की सरकारें बनी-बिगड़ी हैं।
चुनाव कार्य करने वाले सरकारी कर्मचारियों की दृष्टि से भी इस पर विचार किया जा सकता है – चाहे चुनाव पर्ची से हो या ईवीएम से। चुनाव में छोटी सी गलती होने पर भी कर्मचारी निलंबित हो जाता है। कई बार नौकरी भी चली जाती है। जिला निर्वाचन अधिकारी कलेक्टर भी हटा दिए जाते हैं। कोई भी कर्मचारी ऐसा खतरा मोल लेना पसंद नहीं करेगा। दुर्भाग्य से संवैधानिक संस्थाओं की आलोचना करना आम बात हो गई है। राजनीति के शातिर खिलाड़ी चुनाव आयोग और ईवीएम को दोषी ठहराते हैं। उनका उद्देश्य समर्थकों और आम नागरिकों को बेवकूफ बनाना होता है। ऐसे लोग नागरिकों को मुर्ख समझते हैं, जबकि वास्तव में आम नागरिक बहुत जागरूक हो गया है और अपने विवेक से वोट देता है। अब चुनाव की चर्चा हर गली, मौहल्ले और घर में होती है। वास्तव में हारे हुए बाजीगर स्थापित संस्थाओं की अनुचित आलोचना करते हैं। उनका उद्देश्य समाज में अविश्वास और अव्यवस्था फैलाना होता है। वे इस भ्रम पर जीवित हैं कि उनकी अभी भी बहुत प्रतिष्ठा है और वे जो कहेंगे लोग उसे मान लेंगे।
संवैधानिक संस्थाओं में आस्था-विश्वास रखना देश हित में हैं। अविश्वास करने वाले संविधान के मूल आधार पर आघात करना चाहते हैं। ऐसे लोग जनाधार खो चुके हैं और अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए ईवीएम को दोषी ठहराते हैं। ऐसे लोगों को अपनी प्रतिष्ठा बनाने का प्रयास करना चाहिए। चुनाव आयोग और ईवीएम को दोष देकर प्रतिष्ठा नहीं बनाई जा सकती। प्रतिष्ठा सार्वजनिक जीवन में सुचिता और व्यवहार से ही होगी।

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