अपने समय से संवाद स्थापित करती है सार्थक कविता – प्रणयेश जैन

जनवादी लेखक संघ की काव्य गोष्ठी आयोजित

रतलाम। हर कविता सार्वकालिक होती है और बार-बार पढ़ी जाने वाली। किसी भी कविता की संप्रेषणीयता इसी बात से तय होती है कि वह कितने लोगों तक अपना संदेश पहुंचा रही है और उसके अर्थ कहां तक पहुंच रहे हैं । ऐसी कविता ही सार्थक कविता होती है और वह हर समय प्रासंगिक रहती है । रचनाकार अपनी रचना के माध्यम से समय को प्रतिबिंबित करता रहे तो उसका लेखन बहुत दूर तक पहुंचता है ।
उक्त विचार जनवादी लेखक संघ द्वारा आयोजित काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि प्रणयेश जैन ने व्यक्त किए । उन्होंने कहा कि हर कविता का अपना महत्व होता है और वह कई संदर्भों के साथ सामने आती है। कार्यक्रम की मुख्य अतिथि डॉ. पूर्णिमा शर्मा ने वर्तमान को सामने लाती कविताओं की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि आज सार्थक और सशक्त रचनाओं की आवश्यकता है। जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष रणजीत सिंह राठौर ने भगत सिंह पुस्तकालय से संबंधित जानकारी दी।
इन्होंने पढ़ी रचनाएं
काव्य गोष्ठी में वरिष्ठ कवि श्याम माहेश्वरी, प्रो. रतन चौहान, नरेन्द्र गौड़, यूसुफ़ जावेदी, पं.मुस्तफ़ा आरिफ़, पुष्पलता शर्मा, हरिशंकर भटनागर, जितेंद्र सिंह पथिक, रणजीत सिंह राठौर, दिनेश उपाध्याय, लक्ष्मण पाठक, दिलीप जोशी, मुकेश सोनी, गीता राठौर , अनीस ख़ान, सुभाष यादव, नरेंद्र सिंह पंवार, नरेंद्र सिंह डोडिया, श्याम सुंदर भाटी ने रचना पाठ किया। संचालन आशीष दशोत्तर ने किया। आभार कीर्ति शर्मा ने व्यक्त किया।

मां कभी धूप, कभी छांव,कभी शबनम है
गोष्ठी में पढ़ी गई कुछ पंक्तियां इस प्रकार रहीं –
खामोश समंदर ठहरी हवा , तूफां की निशानी होती है,
दिल और भी तब घबराता है जब नाव पुरानी होती है।
हरिशंकर भटनागर

मां तो गीता , कभी सलमा तो कभी मरियम है ,
मां कभी धूप , कभी छांव, कभी शबनम है ।
लक्ष्मण पाठक

बद नज़र उनके जानिब मैं उठने न दूं ,
एक भी उनके दुश्मन को मैं बचाने ना दूं।
पं. मुस्तफ़ा आरिफ़

कुत्ते भौंक रहे हैं मौन खड़े लोगों पर
और हाथी चले जा रहे हैं शान से
लोगों का मौन टूटना ज़रूरी है।
रणजीत सिंह राठौर

मैं जानता हूं स्पर्श की भाषा
और उसे बखूबी लिखना।
मुकेश सोनी सार्थक

इसी जन्म में इन आंखों से दर्शन तेरे कर पाऊं ,
गोकुल की खाली मटकी भजनों से भर जाऊं ।
पुष्पलता शर्मा

प्लास्टिक के पेड़ खुशबू नहीं देते
उन पर नहीं बैठी कोई तितली
फिर भी जगह-जगह लगे हैं मुंह चिढ़ाते।
नरेन्द्र सिंह डोडिया

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