रतलाम। नीमचौक स्थानक पर धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए जिनशासन प्रभाविका, ज्ञानगंगोत्री, मेवाड़ सौरभ उपप्रवर्तिनी बाल ब्रम्हचारी मालवकिर्ती पू.श्री किर्तीसुधाजी म.सा ने कहा कि जिनवाणी से भव-भव के सन्ताप से मुक्ति मिलती है । कर्म शब्द छोटा है लेकिन करामाती है। व्यक्ति को तीनों लोकों में नाच नचाता रहता है। अपने कर्म की कैसेट को देखना जरूरी है।
दुनिया में जितनी भी विचित्रता है वो कर्मों का खेल है । किसी के पास बंगला तो किसी के पास झोपड़ी भी नही, कोई रोज करोड़ो कमा रहा है किसी की पॉकेट में 50 का नोट भी नही । कोई थोड़ा पढ़ता है और पूरा समझ जाता है कोई रात दिन पढऩे पर भी समझ नही पाता, कोई कम प्रयास में ही सीए, डॉक्टर, अधिकारी बन जाता है और कोई भरपूर प्रयास करने के बाद भी सफल नही हो पाता है, ये सब क्या है ये कर्मों का ही तो खेल है जो हमें नचा रहा है ।
प्लेन उड़ता है तो पता रहता है की कितनी देर में गंतव्य तक पँहुचेगा, रॉकेट की गति को भी नापा जा सकता है लेकिन मन की गति को नापना सम्भव नही है, वैसे ही कर्म की लीला को पहचानना भी सम्भव नही है।
करमचंद जी तीनों लोक में छोडऩे वाला नही है, अब आप कहेंगे की कर्म इतना बलवान है तो हम क्या कर सकते है, लेकिन इस विषय में परमात्मा फरमाते है की जो कर्म हम करोड़ो भव से बाँधते आए है वो एक जन्म में और तो और एक क्षण में कट सकते है।
इस दुनिया के लोग कितने दुखी है ये सन्त सतियों को आपसे ज्यादा पता रहता है, क्योंकि वो गाँव गाँव शहर शहर घूमते है और दुख के मारे लोग उनके सामने अपनी व्यथा सुनाते है, लेकिन सन्त कभी इधर की बात उधर नही करते है हाँ वो दुखियारे का दु:ख दूर करने का प्रयास जरूर करते है।
अगर आपके कर्मों की रील आपकी आँखों के सामने आ जाए तो आपको चक्कर आ जाएंगे आँखों के सामने अँधेरा छा जाएगा।
पता नही किस जन्म में सन्त महात्मा की सेवा की होगी, किसी के आँसू पोंछे होंगे, किसी जीव की रक्षा की होगी जो आज हमें इस पंचम आरे में भी जिनशासन का सानिध्य मिला। अंसख्य देवों से असंख्य नारकी जीवों ने कितनी अर्जी लगाई होगी की एक बार उन्हें मानव जन्म मिले, और ऐसा मानव जीवन हमें मिला है।
ये जीवन केवल खाने कमाने और ऐशो आराम के लिये नही मिला है, ये जन्म मिला है भव भव की भटकन को खत्म करने के लिए मिला है, कर्मों को खपाने के लिए मिला है।
लेकिन हम तो हमारी दुकान, मकान, पैसा, परिवार में ही समय बिता रहे है लेकिन पता नही ये समय कब पूरा हो जाए, कोरोना काल ने कम से कम सबको ये तो सीखा ही दिया है की ये जीवन क्षण भंगुर है। लेकिन हम इंद्रियों के वश में है। स्वाद में आसक्त होकर पता नही क्या क्या खा लेते है ।
बनारस का एक राजा बलवंत सिंह रसेन्द्रियों के मोह में पशु पक्षियों का शिकार करते थे, उसके महल में जानवरों के शव पड़े रहते थे। एक बार उसे चिडिय़ा की जीभ की सब्जी खाने का मन हुआ, 500 चिडिय़ों का शिकार कर उनकी सब्जी बनवाकर खाई ।
लेकिन पाप का अंत बहुत भयानक होता है, बलवंत सिंह को भयंकर बीमारी हुई पूरे शरीर में कीड़े पड़ गए, शरीर छलनी हो गया, शरीर बदबू मारने लगा कोई उसके पास नही जाता था, ऐसे ही मरने के बाद वो सातवीं नारकी में गया।
सबसे कठीन दुख सातवीं नारकी है जिसमें 33000 वर्ष तक भयंकर पीड़ा है। और सबसे बड़ा सुख सुखमय सर्वसिद्ध विमान है।
करमचंद जी राजा हो या महाराजा, स्त्री हो या पुरुष, बच्चा या बड़ा किसी को नही छोड़ते है। तीर्थंकर को भी कर्मफल भोगना पड़ता है।
प्रभु महावीर ने भी समकित प्राप्ति के बाद से तीर्थंकर की 27 भव की यात्रा में नारकी के 2 भव, तिर्यंच का 1 भव, देवलोक के दस भव और मनुष्य के 14 भव किये। 18वें भव में त्रिपुष्ट वासुदेव बने और 19वें भव में उन्हें सातवीं नारकी में जाना पड़ा और 20वें भव में तिर्यंच के रूप में सिंह बनना पड़ा। जैसे बगीचा लगाने में बहुत समय लगता है और उजाडऩे में समय नही लगता है वैसे ही कर्मों को नष्ट करने में भी समय नही लगता है। पूज्य श्री आराधना श्री जी मसा ने अपने धर्म सन्देश में फरमाया की स्त्री के तीन गुण होते है सहनशीलता, सहानुभूति और सेवा परायणता । स्त्री सास, बहु, बेटी, , ननद, बहन किसी भी रूप में सेवा, समर्पण और सहिष्णुता को अपने किसी भी रोल को बखूबी निभा सकती है। स्त्री का एक और नाम है नारी मतलब न – आरी, आरी काटने का काम करती है, नारी मतलब जो काटने का काम नही कर जोडऩे का काम करे। स्त्री का एक और नाम है महिला : म-ममत्व, हि-हिम्मतवाली, ला-लाजवन्ती लेकिन आज की महिला को ममत्व केवल अपनी संतान से है बाकी परिवार से नही, हिम्मत है तो केवल अपने अधिकारों को मांगने के लिए है और लज्जा वाली बात तो अब बची ही नही है, मनचाहे अनचाहे कपड़े पहनना वो अपना अधिकार समझती है और उसपर रोक टोक को वो अपने अधिकारों का हनन कहती है। । तपस्या का दौर निरन्तर जारी है । गुनवन्त मालवी, नन्दन पितलिया, सोनू बोथरा, दीप्ति झामर, मंजूबाला चानोदिया को आठ उपवास की दीर्घ तपस्या चल रही है। तेले तप और आयम्बिल तप की लड़ी भी निरन्तर जारी है।