जैन धर्म और संयम- दीक्षा और दीक्षा का महत्व

रमेश मेहता जैन, सांगली
मो. 78881 83289

दीक्षा अर्थात संयम, अपने आप पर नियंत्रण, ग्रंथी रहित जीवन जीना, राग-द्वेष और कषायों को कम करना, प्रभु आज्ञा को सर्वोपरि मानकर जीवन जीना, उपसर्ग और परिषह आने पर समभाव रखना।
दीक्षा अर्थात जीवन भर के लिए तीन करण तीन योग से सामायिक।
दीक्षा अर्थात पूर्वकृत कर्मों को क्षय करना और वर्तमान में ने कर्मों से बचना।
दीक्षा अर्थात आरंभ-समारंभ का पूर्ण त्याग और परिग्रह की आगम अनुसार मर्यादा।
दीक्षा अर्थात पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति का पालन करना।
दीक्षा अर्थात स्वावलंबी जीवन जीना और अपने गुरु, आचार्य, उपाध्याय और सधार्मिक साधुओं की सेवा भक्ति करना।
दीक्षा अर्थात मर्यादित जीवन जीना।
दीक्षा अर्थात भगवान की आज्ञा अनुसार आचरण करना, प्रभु आज्ञा को सर्वोपरि मानकर जीवन जीना।
दीक्षा अर्थात राग-द्वेष और कषायों का दमन करना।
दीक्षा अर्थात अहिंसा : छ: काय जीवों की रक्षा करना (मन-वचन-काया) से।
दीक्षा अर्थात सत्य : किसी भी परिस्थिति में प्रिय या अप्रिय झूठ नहीं बोलना।
दीक्षा अर्थात अस्तेय : बिना पुछे किसकी कोई वस्तु नहीं लेना। चाहे वह दांत कुचरने का तीनका ही क्यों न हो ?
दीक्षा अर्थात अब्रम्ह अर्थात नववाड़ सहित शुद्ध ब्रम्हचर्य का पालन करना,
दीक्षा अर्थात अपरिग्रह – आगम में बताएं अनुसार साधु के लिए 72 हाथ और साध्वी के लिए 96 हाथ कपड़े की मर्यादा इसके अतिरिक्त कपड़ा नहीं रखना। उपकरण में आवश्यक चार पात्र, पुंजनी और अत्यावश्यक पुस्तकें।
जो भी वस्तु चाहिए वह श्रावकों से मांगकर लेना।
खाने-पीने की वस्तुओं को रात में अपने पास नहीं रखना।
जितना सामान स्वयं उठा सकें उतना ही रखना।
सम्यक प्रकार से मन-वचन-काया से दीक्षा का पालन करने वाला मोक्ष मार्ग की तरफ अग्रसर होता है।