- साभार : जैन दिवाकर ज्योति पुंज खंड -16 पेज 27 से 129
- प्रस्तुति : सुरेन्द्र मारू इंदौर +91 98260 26001
विक्रम संवत 1952, फाल्गुन शुक्ला 3, रविवार तदनुसार का दिन पू.भा. नक्षत्र का योग, शुभ मुहूर्त। ऐसे शुभ मुहूर्त में कविवर्य श्री हीरालालजी महाराज ने श्री चौथमलजी को दीक्षा प्रदान कर दी। अब श्री चौथमलजी, मुनि श्री चौथमलजी महाराज बन गए। साधना के अमर पथ पर चल पड़े। उनका जीवन त्याग – पथ की ओर मुड़ गया। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य औरअपरिग्रह 5 महाव्रतों का पालन करने लगे। नवदीक्षित मुनि चौथमलजी महाराज गुरुदेव के साथ पंच पहाड़ पधारे। माता केसरबाई भी वहां पहुंच गई। छोटी दीक्षा के 7 दिन बाद बड़ी दीक्षा समारोह धूमधाम से संपन्न हुई। संकल्प के धनी का संकल्प पूरा हुआ, जो उसने विचार किया वह पूरा कर दिखाया। माता केसरबाई ने भी अपने पुत्र की दीक्षा में पूरी पूरी सहायता की।
संवत 1950 से 1952 के 2 वर्षों तक श्री चौथमलजी महाराज की दीक्षा में विघ्न आते रहे। उनके वैराग्य की धारा को संसार की ओर मोड़ने का अथक प्रयास किया गया। हवालात में रखा गया, जान से मारने की धमकी दी गई, लेकिन उनका वैराग्य इतना कच्चा नहीं था जो इन धमकियों से दब जाता। ठाणान्ग सूत्र में संसार विरक्ति के निम्न कारण बताए हैं :- स्वेच्छा से ली हुई प्रवज्या/रोष से ली हुई प्रवज्या/ दरिद्रता से ऊबर ली गई प्रवज्या/ स्वप्नदर्शन द्वारा ली गई प्रवज्या/ प्रतिज्ञा पूर्ण होने पर ली गई प्रवज्या/ जाति स्मरण ज्ञान से पूर्व जन्मांतर का स्मरण होने से ली गई प्रवज्या/रोग के कारण ली गई प्रवज्या/देवों द्वारा प्रतिबुद्ध किए जाने पर ली गई प्रवज्या/ अपमानित होने पर ली गई प्रवज्या/पुत्र – स्नेह के कारण ली गई प्रवज्या।
अन्यत्र दीक्षा के संसार – प्रसिद्ध निम्न कारण माने गये हैं :-
- दु:खगर्भित वैराग्य* – अशुभ कर्मों के कारण दु:खों से घबराकर जो संसार से विरक्ति होती है, वह दु:खगर्भित वैराग्य कहलाता है।
- श्मशानजन्य वैराग्य* – यह वैराग्य श्मशान में किसी शव की अंत्येष्टि होते हुए देखने से होता है।
ये दोनों ही वैराग्य श्लाघनीय नहीं हैं। ये स्थायी भी नहीं रहते। पूज्य गुरुदेव श्री चौथमलजी महाराज का वैराग्य इनमें से किसी भी कोटि का नहीं था। उनका वैराग्य आत्मा से प्रस्फुटित हुआ था। इसको आगम की भाषा में – 3. ज्ञानगर्भित वैराग्य कहा जाता है। यह स्थायी भी होता है। इसीलिए 2 वर्षों तक निरंतर विघ्न – बाधाएं सहते रहने पर भी पूज्य श्री चौथमलजी महाराज की वैराग्य ज्योति बुझी नहीं वरन और भी अधिक प्रदीप्त होती रही। दीक्षा ग्रहण करने के बाद तो उनके वैराग्य में दिनोंदिन चमक आ गई। वे दिवाकर बनकर चमके और जन-जन के हृदय को आलोकित करते रहे। पूज्य श्री चौथमलजी की दीक्षा के 2 महीने बाद पूज्य माताजी केसरबाई ने भी महासती श्री फूंदीजी आर्याजी महाराज से दीक्षा अंगीकार कर ली। वीरमाता और वीरपुत्र दोनों ही साधना द्वारा अपना आत्म कल्याण करने लगे।पूज्य श्री चौथमलजी की दीक्षा के 15 वर्षों पश्चात आपकी सांसारिक पत्नी मानकुंवरजी ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली और इस तरह परिवार जिनशासन की सेवा में संयम ले संलग्न हो गया। दीक्षा के पश्चात 55 वर्षों की संयम यात्रा का संक्षिप्त चतुर्मासिक दर्पण आपके सम्मुख प्रस्तुत करने का प्रयास रहा हूं:-
चातुर्मास विक्रम संवत स्थान /अन्य जानकारी छोटी दीक्षा – 1952 बोलिया/धार्मिक अध्ययन प्रारंभ।
बड़ी दीक्षा – 1952 पंच पहाड़।
प्रथम – 1953 झालरापाटन/ सानिध्य गुरु हीरालालजी ।
दूसरा – 1954 रामपुरा/ सानिध्य गुरु हीरालालजी/आपका प्रथम प्रवचन कोटा में मुनि चैनरामजी की प्रेरणा से।
तीसरा -1955 बड़ी सादड़ी मेवाड़/शास्त्रीय ज्ञान, अध्ययन।
चौथा – 1956 जावरा/पू.श्री नृसिंहजी म./गुरुवर श्री जवाहरलाल जी म. पं. श्री नंदलालजी आदि की सेवा में रत।
पांचवा – 1957 रामपुरा/ सानिध्य गुरु श्री हीरालालजी म.
छठा – 1958 मंदसौर/ स्वतंत्र वर्षावास ।
सातवां -1959 नीमच/पू. श्री हजारीमलजी महाराज की सेवा में / श्री हुकमीचंदजी की दीक्षा संपन्न।
आठवां – 1960 नाथद्वारा/जिनशासन की खूब प्रभावना।
नवां – 1961 खाचरोद/मुमुक्षु श्री शंकरलालजी की दीक्षा ।
दसवां – 1962 रतलाम/सांसारिक माता महासती केसरकुंवरजी का संथारा सहित देवलोकगमन।
ग्यारहवां – 1963 कानोड़/ बेगू में सांसारिक मौसी प्रवर्तिनी रत्ना जी म का संथारा सहित देवलोकगमन।
बारहवां – 1964 जावरा/ मुमुक्षु कजोड़ीमलजी ने परिवार की आज्ञा न मिलने पर भी साधुवेश धारण कर लिया।
तेरहवां – 1965 मंदसौर/ मुमुक्षु पू.नंदलालजी की दीक्षा/रतलाम में श्वै. स्था. जैन कान्फ्रेंस के अधिवेशन को संबोधन।
चौदहवां – 1966 उदयपुर/पं. रत्न देवीलालजी म.के साथ/भील आदिवासीयों का उद्धार/ अजमेर में श्वे.स्था. जैन कांफ्रेंस के अधिवेशन में एकता विषय पर संबोधन।
पंद्रहवां – 1967 जावरा/ गुरु पूज्य श्री हीरालाल जी के आदेश पर सांसारिक पत्नी मानकुंवर को सदबोध दिया और वे साध्वी बनी।
सोलहवां – 1968 बड़ी सादड़ी/ उदयपुर के कृष्णलालजी शर्मा ने दीक्षा ग्रहण की।
सत्रहवां – 1969 रतलाम/ ताल निवासी चंपालालजी की दीक्षा चित्तौड़ में वैरागी श्री प्यारचंदजी की दीक्षा।
अठारहवां – 1970 चित्तौड़/मुनि श्री से यूरोपियन एफ जी टेलर प्रभावित। हमीरगढ़ में 36 वर्ष पुराना हिंदू – छीपाओं का झगड़ा समाप्त।
उन्नीसवां – 1971 आगरा/ वैश्याओं का उद्धार/खटिकों में जागृति हिंसा – त्याग।
बीसवाँ – 1972 पालनपुर/मोची परिवारों ने जैन धर्म स्वीकारा/और मंदसौर में पूज्य श्रीजवाहरलालजी म. का देवलोकगमन।
इक्कीसवां – 1973 जोधपुर/ तपस्या का जोर।
बाइसवां – 1974 अजमेर /पूज्य गुरुदेव श्री हीरालाल जी म. का देवलोकगमन।
तेईसवाँ – 1975 ब्यावर/ ऊंकार शब्द की विषाद व्याख्या से प्रभावित हो देवगढ़ के रावत जी ने साल के अधिक महीनों में शिकार न करने तथा कुछ जानवरों को बिलकुल नहीं मारने का नियम लिया। रतलाम में श्री भैरवलालजी सुरिया कोशीथल वाले को दीक्षा भी दिलवाई।
चोइसवाँ – 1976 दिल्ली/ पू. श्री मन्नालालजी महाराज का सानिध्य मिला। आपके प्रवचनों से प्रभावित हो ब्राह्मण श्री द्वारकाप्रसाद जी ने जैन धर्म स्वीकार कर लिया। माधोपुर में एक बहिन को दीक्षा देकर श्री फुलांजी आर्याजी की शिष्या बनाया। यहीं के एक मुस्लिम भाई आलिम आफिज ने जैन सिद्धांतों को स्वीकार किया।मुंह पत्ती बांधकर सामायिक, पौषध, दया आदि करने लगा।
पच्चीसवां – 1977 जोधपुर/ पूज्य श्री मन्नालालजी म. के सानिध्य में जोधपुर पहुंचे ही थे कि पूज्य श्रीलालजी महाराज के देवलोक गमन के समाचार तार द्वारा प्राप्त हुए/ मुनिश्री फौजमलजी महाराज के 67 दिन की दीर्घ तपस्चर्या पर तपपूर्ति के दिन जीव हिंसा पूर्ण रूपेण वहां के महाराजा ने बंद करवाई। शेरों और बाघों को भी दूध दिया गया। बड़ी सादड़ी मेवाड़ निवासी 23 वर्षीय श्री भैरवलालजी नागोरी ने दीक्षा ग्रहण की। उनका नाम मुनि वृद्धिचंदजी रखा गया।
छब्बीसवां – 1978 रतलाम/ जोधपुर से रतलाम विहार के समय पूज्य श्री मन्नालाल जी महाराज के साथ अजमेर पधारे। वहां पूज्य श्री शोभाचंदजी महाराज के पास दो वैरागी और दो वैरागिनों की दीक्षा में सहभागी बने। रतलाम में तपस्वी मुनि श्री मयाचंदजी महाराज की 33 दिन की तपस्या की पूर्णाहुति पर रतलाम नरेश अस्वस्थता के बावजूद आपके प्रवचन सुनने आए।
सत्ताईसवां – 1979 उज्जैन/रतलाम से उज्जैन विहार के समय केसूर गांव में 60 क्षेत्रों के चर्मकार समाज गंगाजलोत्सव पर इकट्ठा हुए थे आपके उपदेश से प्रभावित हो मदिरापान नहीं करने के नियम ले लिए। उज्जैन में तपस्वी मुनि मयाचंदजी के 33 उपवास की तपस्चर्या की पूर्णाहुति पर उज्जैन की कपड़ा मिल, प्रेस, जिन कसाई खाने बंद रखे गए।
अट्ठाइसवां – 1980 इंदौर/ इंदौर के सर सेठ हुकमचंदजी ने आपके एक व्याख्यान को सुना और कहा कि-जन्म भर नहीं भूलूंगा। स्कंधक मुनि की कथा मेरे हृदय में बस गई है। दो -चार व्याख्यान और उनके सुन लूं तो मुझे मुनि ही बनना पड़े*।
उन्तीसवां- 1981 घाणेराव सादड़ी/ एक दिन मंदिरमार्गी – संप्रदाय की आनंदजी कल्याणजी की पेड़ी के मुनीम श्री भगवानलाल जी आपकी सेवा में उपस्थित हुए और गांव बाहर माता के मंदिर में प्रतिवर्ष होने वाली पाड़ा की बलि बंद करवाने की प्रार्थना की। स्थानकवासी और मंदिरमार्गी दोनों संघ के प्रयत्न एवम महाराज श्री के प्रभाव से वह बलि बंद हो गई।
तीसवां -1982 ब्यावर/ब्यावर में कोशीथल निवासी श्री प्यारचंद जी, श्री बख्तावरमल जी कोठारी और उनकी माता कंकूबाई कोठारी तीनों की दीक्षा संपन्न करवाई।दोनों भाई आपके शिष्य बने और कंकू बाई श्री महासती धापूजी महाराज की शिष्या बनीं। कोटा संप्रदाय के पं. श्री रामकुमार जी महाराज ने अपने शिष्यों सहित ज्ञान ध्यान सीखा।
इकतीसवां – 1983 उदयपुर/ अंग्रेज अफसर मि. चैनेविक्स ट्रेंच का नौकर आप श्री का प्रवचन सुनकर बिल्कुल नेक बन गया।
बत्तीसवां -1984 जोधपुर/ एक विद्वान पंडित जो स्वरों पर बहुत विश्वास करते थे। जब घर से चले तो सूर्य स्वर चल रहा था। सोचा आज मुनि श्री को प्रश्न पूछ निरुत्तर कर दूंगा। लेकिन महाराज श्री के समक्ष पहुंचते ही चंद्र स्वर चलने लगा। जैन दिवाकर जी बोले जो पूछना है पूछिए। स्वर बदलने से ज्ञान लुप्त नहीं होता। आपका चंद्र स्वर चल रहा है और मेरा सूर्य स्वर तो इससे न प्रश्न में अंतर पड़ेगा, न उत्तर में। पंडित जी पर घड़ों पानी पड़ गया। श्रद्धापूर्वक गुरुदेव के चरणों में सिर झुकाकर चले गए।
तेंतीसवां – 1985 रतलाम/तपस्वी श्री मयाचंदजी महाराज ने 38 दिन की तपस्चर्या की पूर्णाहुति के दिन आपश्री ने *मनुष्य जीवन* पर सारगर्भित प्रवचन फरमाया। विचरण काल में चित्तौड़ के मजिस्ट्रेट यशवंतसिंह जी ने बंदियों का हृदय परिवर्तन हो इस उत्तम विचार से आपश्री के प्रवचन करवाए। वाणी श्रवण के पश्चात बंदियों को अपने दुष्कृत्यों पर बहुत पश्चाताप हुआ और सदमार्ग पर चलने का संकल्प लिया।
चौतीसवां – 1986 जलगांव/ विचरण के दौरान श्री संघ धूलिया के द्वारा पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी म. ने आपसे मिलने की इच्छा जाहिर की।दोनों मुनिवरो का स्नेह भरा मिलन हुआ। वहां से आप श्री अमलनेर पधारे। वहां आपकी प्रेरणा से महावीर जयंती का उत्सव दिगंबर, श्वेताम्बर मंदिरमार्गी और स्थानकवासी तीनों संप्रदायों ने मिलकर मनाया।
पैंतीसवां – 1987अहमदनगर/ जलगांव चातुर्मास के बाद आप श्री भुसावल पधारे। वहां सेठ पन्नालाल जी की पुत्री का विवाह था। विवाह मंडप में व्याख्यान होते थे। वर -वधु के पिता की ओर से हजारों रुपयों का दान किया गया। पाठशाला खोली गई।छतीसवां – 1988 मुंबई / *कांदावाड़ी स्थानक में वहीं के कुछ जैनेतर युवक आपकी प्रवचन शैली से प्रभावित होकर कहने लगे कि आपका अधिकांश समय तो पदयात्रा में ही चला जाता है। जनकल्याण के लिए आप वाहनों का प्रयोग क्यों नही करते?
उन युवकों को मर्यादा का महत्व समझाते हुए बोले – यह जैन श्रमणों की मर्यादा है।जिसका पालन करना आवश्यक है। मर्यादा में तट सीमा में बहती हुई नदी जन – जन का कल्याण करती है और मर्यादाहीन होकर भयंकर विनाश कर देती है, उसी प्रकार साधु जीवन भी है।
मर्यादा सूत्र में बंधी पतंग आकाश में उड़ती है और सूत्र टूटते ही जमीन में गिर जाती है, उसी प्रकार मर्यादाहीन साधु भी अपने उच्च स्थान पर नहीं रहता।
तीव्र गति से चलने वाले वाहनों से वायु काय जीवों की अत्यधिक हिंसा होती है।इसीलिए महावती श्रमण वाहनों का प्रयोग नहीं करते। यह श्रमण संघ की मर्यादा और तीर्थंकर प्रभु की आज्ञा है।
सैतीसवां – 1989 मनमाड़/वर्षावास में जैन कांफ्रेंस के पदाधिकारी श्री वेलजी नखमशी नप्पू, दुर्लभ जी भाई जोहरी आदि ने अजमेर में होने वाले वृहत्साधु सम्मेलन में पधारने का निमंत्रण दिया। आपने अपनी स्वीकृति दे दी। इस सम्मेलन से पहले अपने संप्रदाय के साधुओं का सम्मेलन आवश्यक समझ भीलवाड़ा में मिलना निश्चित किया।पूज्य श्री मन्नालालजी महाराज पूज्य श्री खूबचंद्जी महाराज सभी पहले ही भीलवाड़ा पहुंच चुके थे। अजमेर सम्मेलन में भाग लेने वाले संतों में आप भी थे।और संप्रदाय के प्रतिनिधि की हैसियत से भाग लिया। पूज्यश्री हुकमीचंद जी महाराज के दोनों संप्रदाय भी आपकी प्रेरणा से ही एक हुए। साधु सम्मेलन समाप्त होने के बाद कान्फ्रेंस के खुले अधिवेशन में आपने जैन समाज में व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार किया। जैन समाज में जागृति लाने के लिए शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया।
अड़तीसवां – 1990 ब्यावर/ चातुर्मास में एक श्रावक ने प्रश्न किया – महाराज आप तो पुण्य का बहुत उपदेश देते हो। फिर अपने पात्र में से किसी विसंभोगी याचक को अन्नजल आदि देकर पुण्य लाभ क्यों नहीं करते?
आपने सहजता से उत्तर दिया – मर्यादा का महत्व पुण्यलाभ से अधिक है। अतः भूखे को अन्नजल देने से पुण्यलाभ तो होता है, लेकिन यह साधु मर्यादा के विपरीत है।
उन्तालिसवां- 1991 उदयपुर/ एक दिन उदयपुर के महाराणा श्री भूपालसिंहजी शिकार खेलने जयसमंद गए। वहां एक बड़ा भारी सांभर दरबार के सम्मुख आया। पास वालों ने कहा – शिकार कीजिए। दरबार ने सांकेतिक स्थान पर सांभर के आने पर बंदूक उठाई, किंतु तुरंत ही बंदूक रख दी और बोले गुरुदेव चौथमलजी महाराज को सूचित कर देना कि मैंने इस जीव को अभयदान दिया है।
चालीसवां – 1992 कोटा/ कोटा में आपका प्रवचन अहिंसा विषय पर हुआ जिसमे कोटा नरेश अपने लवाजमे के साथ दस मिनिट के लिए सुनने आए और 50 मिनिट तक मंत्रमुग्ध हो सुनते रहे।वर्षावास पश्चात आप मंदसौर पधारे। वहां पूज्य श्री खूबचंद्जी महाराज, पं. श्री कस्तूरचंदजी महाराज, पं. श्री प्यारचंदजी महाराज,पं. हजारीमलजी महाराज, बड़े श्री नाथुलालजी महाराज, पं. श्री हीरालालजी महाराज, श्री केवल मुनि जी महाराज आदि अनेक संत एवम विदुषी महासती हगामकुंवरजी महाराज, श्री धापुजी महाराज आदि सतियांजी विराजमान थी। सभी के समक्ष श्री चौथमल जी महाराज को चतुर्विध संघ ने जैन दिवाकर की पदवी से अलंकृत किया।
इकतालीसवां – 1993 आगरा/ कोटा चातुर्मास पश्चात विचरण करते हुए आप इंद्रगढ़ पधारे। वहां के ब्राह्मण समाज में 40 वर्ष से दो विरोधी दलों में व्याप्त फूट को अपने प्रवचन *एकता* पर ऐसा जोशीला भाषण दिया कि दोनों दलों के मुखिया खड़े होकर बोले – संघर्ष में तो हम बर्बाद हो गए। अब तो एकता की इच्छा है। दोनों ओर के मुखियाओं ने एक दूसरे से क्षमा मांगी और एकता हो गई। ऐसे ही जलेसर में आपके प्रवचन का विषय “चोरी के दुष्परिणाम” था। प्रवचन समाप्त होते ही एक दुर्दांत हत्यारा और डकैत व्यक्ति ने खड़े होकर चोरी नहीं करने का नियम आपसे लिया। आपकी चमत्कारी वक्तृत्व शक्ति के प्रति उपस्थित जन समुदाय श्रद्धावनत हो धन्य -धन्य कह उठा।
बयालीसवां – 1994 कानपुर/ कानपुर में चातुर्मास हेतु कोई स्थानकवासी जैन मुनि 40 वर्ष पश्चात पधारे थे। स्वागत / आगाज़ तो फीका रहा परंतु आपके प्रवचनों ने ऐसा प्रभाव जमाया कि बिदाई बड़े ही धूमधाम से अपार जनसमूह के साथ हुई। किसी अन्य पंथ को मानने वाले व्यक्ति ने प्रश्न किया कि – वस्त्र आदि अन्य उपकरण आप रखते हैं। क्या इससे पंच महाव्रत अपरिग्रह दूषित नहीं होता ?
आपने सहज भाव से समाधान दिया कि – परिग्रह को आप लोगों ने सर्वांग दृष्टि से नहीं समझा। वस्त्र , पात्रों को नहीं वरन “मूर्च्छाभाव” को परिग्रह कहा गया है। दिगंबर मुनि भी पीछी, कमंडल का परिग्रह रखते हैं।अति आवश्यक उपकरणों को रखने की आज्ञा आगम में दी गई है। “मूर्च्छापरिग्रह “: सूत्र के आधार पर आप स्वयं ही निर्णय कर लीजिए। वे विद्वान संतुष्ट होकर गए।
तिर्यालीसवां – 1995 दिल्ली/ चातुर्मास स्थल के वहां बोर्ड पर सूचना अंकित थी – अध्यात्म व्याख्याता जैन दिवाकर श्री चौथमल जी महाराज यहां विराजमान हैं। एक कार रुकी। उसमें एक जर्मन प्रोफेसर बैठे थे। अपने साथ बैठे व्यक्ति से पूछा बोर्ड पर क्या लिखा है। उसने अनुवाद कर बतलाया तो वह *जर्मन प्रोफेसर आपके प्रवचन मंत्र मुग्ध हो सुनने लगा। और महाराज श्री से प्रश्न किया आत्मा है या नहीं ? आपने समझाया – जिसके जिसके आदेश से शरीर द्वारा जो क्रियाएं हो रही वही आत्मा है। उसके निकल जाने के बाद शरीर ज्यों का त्यों पड़ा रह जाता है। वह अमूर्त, अविनाशी और अतीन्द्रीय है। उसे इन आंखों से देखा नहीं जा सकता, केवल अनुभव ही किया जा सकता है। समाधान पाकर प्रोफेसर संतुष्ट हुए।
चवालीसवां – 1996 उदयपुर/ आपके प्रवचन सुनकर लोगों ने मदिरापान का त्याग किया। उदयपुर महाराणा की जिज्ञासा पर एक प्रवचन में आपने रक्षाबंधन के रहस्य प्रकट किए जिसे सुनकर सभी चकित रह गए। विचरण करते हुए आप निंबाहेड़ा पधारे, आपके साथ ठाना 17 संत थे। जहां श्री वृद्धिचंद जी दक, डुंगला वाले ने दीक्षा ली,उनका नाम विमल मुनि रखा गया।
पैंतालीसवां – 1997 जोधपुर/ आपका चातुर्मास 15 संतों के साथ जोधपुर में हुआ। आपके प्रवचनों से प्रभावित होकर अनेक वेश्याओं ने वेश्यावृत्ति का त्याग कर दिया। इसी चातुर्मास में ॐ शांति जप के साथ लगभग 2100 आयंबिल हुए।
छियालीसवां 1998 ब्यावर/ यह चातुर्मास पूज्य श्री खूबचंदजी महाराज के साथ हुआ। निराश्रित भाइयों के लिए जैन सेवा संघ की स्थापना हुई।शांतिनाथ भगवान के अखंड जाप और निग्रंथ प्रवचन सप्ताह मनाया गया। भातखेड़ी की महारानी श्रीमति नवनिधि कुमारी की जैन धर्म पर अटूट श्रद्धा होने और अति आग्रह से तीन व्याख्यान राजमहल में हुए। महारानी ने प्रभावना बांटी। महारानी जी विदुषी थी। आपने 3000 पृष्ठ का एक ग्रंथ लिखा और मुंहपत्ती बांधकर 7 बार भगवती सूत्र पढ़ा। विचरण करते हुए 26 संतों के साथ जावरा पधारे जहां भावभीना स्वागत किया गया।
सैतालीसवां- 1999 मंदसौर / यहां 33 वर्षों बाद चातुर्मास हो रहा था ।आपके धारावाही प्रवचन में जैन जैनेतर की उपस्थिति बहुत ही शानदार थी। विचरण करते हुए आप प्रतापगढ़ पधारे। वहां के दरबार एवम राजमाता ने दो व्याख्यान राजमहल में करवाए।प्रभावना भी दी।
अड़तालीसवां – 2000 चित्तौड़ / 17 मुनियों का चातुर्मास आपके साथ हुआ। अपने प्रवचनों द्वारा आपश्री ने अपाहिजों की सेवा करने की प्रेरणा दी। फलस्वरूप *चतुर्थ वृद्धाश्रम* की स्थापना हुई, जहां वृद्ध लोगों के भरण पोषण और आध्यात्मिक साधना हेतु समुचित साधन जुटाए गए। तपस्वी श्री नेमीचंदजी महाराज ने 50 दिन की और तपस्वी वक्तावरमलजी महाराज ने 57 दिन की तपस्चर्या की। दोनों तपस्वियों के पारणे आनंद से हो गए परंतु पारणे के दिन ही तपस्वी वक्तावरमलजी महाराज का देवलोकगमन हो गया।
उनपचासवां – 2001 उज्जैन/ यहां जैन दिवाकर जी महाराज 40 संतो सहित विराजमान थे। श्वेतांबर मूर्तिपूजक संप्रदाय के व्याख्यान वाचस्पति श्री विद्याविनयजी महाराज भी वहीं विराजित थे। आप दोनों संतों के प्रवचन एक ही मंच से हो रहे थे। उज्जैन में पहली बार श्वेतांबर मूर्तिपूजक, स्थानकवासी और दिगंबर बंधुओं ने मिलकर महावीर जयंती उत्सव आनंदपूर्वक मनाया। आपके उदबोधन से प्रेरित हो राजपूत श्राविका ने फ्रीगंज स्थित अपना एक भवन स्थानक हेतु श्री संघ उज्जैन को समर्पित किया। साथ ही रख रखाव हेतु रुपए 2500/- भी दिए।
पचासवां – 2002 इंदौर/ 27 संत और 27 महासती जी महाराज के विराजने से बहुत ही धर्मध्यान हुआ। व्याख्यान में 6000से अधिक की उपस्थिति हो जाती थी।तपस्याओं की झड़ी लगी। श्री सुगनमल जी भंडारी की प्रेरणा से श्री चतुर्थ जैन वृद्धाश्रम को रुपए 10000 तथा अन्य दान दाताओं से रुपए 20000 का दान प्राप्त हुआ। निग्रंथ प्रवचन सप्ताह मनाया गया। *लोंकाशाह जयंती बड़ी ही धूमधाम से मनाई गई। राय बहादुर सेठ श्री कन्हैयालालजी भंडारी एवम श्री नन्दलाल जी मारू ने अपने विचार रखे। सेठ श्री भंवरलाल जी धाकड़ ने भी सेवा का खूब लाभ लिया।
इक्यावनवां – 2003 घाणेराव सादड़ी/ आपश्री के प्रवचनों की बहुत धूम रही जिसमें वहां के ठाकुर साहब भी उपस्थित होते थे।
बावनवां – 2004 ब्यावर /इस चातुर्मास में भारत विभाजन के कारण हजारों जैन परिवार पाकिस्तान से भारत आए। उनकी दशा बड़ी हृदयद्रावक थी। आपश्री के उपदेशों से विपदग्रस्त बंधुओं की सहायता की गई।गांधी स्मारक की चर्चा चल रही थी। गुरुदेव के संदेशानुसार श्रावकों ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को तार दिया कि गांधीजी की स्मृति को अहिंसक रूप देना है तो संपूर्ण भारत में दूध देने वाले (दुधारू) और कृषि योग्य पशुओं का वध बंद कर दिया जाय।
तिरेपनवां – 2005 जोधपुर/ आपके प्रवचन से प्रभावित होकर अनेक लोगों ने वेश्यागमन, कुव्यसनों आदि का त्याग कर दिया। इस चातुर्मास में तपस्वी श्री नेमीचंदजी महाराज ने 43 दिन की तपस्या की।
चौपनवां – 2006 रतलाम/आपश्री जब रतलाम पधार रहे थे तो रतलाम से 2 मील दूर तीनों संप्रदायों के 300- 400 नर – नारी सेवा में उपस्थित हुए।वार्तालाप हुआ। बड़ा ही मधुर वातावरण रहा। आपके प्रवचन नीम चौक में होने लगे। श्रोताओं की संख्या नगर के 6 हजार और बाहर के 5 हजार इस तरह 10-11हजार होने लगी। जैन दिवाकर जी महाराज की 72वी जन्म जयंती कार्तिक शुक्ला 13 को मनाई गई। *तब आपने फरमाया कि गुणगान तो भगवान महावीर एवम जैनधर्म के होने चाहिए। मैं तो चतुर्विध संघ का सेवक हूं ओर यथाशक्ति सेवा कर रहा हूं और करता रहूंगा।* इस चातुर्मास मेंश्री कन्हैयालाल जी फिरोदिया आपश्री के संपर्क में आए। प्रथम दर्शन और प्रवचन श्रवण करते ही उनकी कवि वाणी फूट पड़ी और एक गीत की रचना हो गई जिसे आज भी हम सभी बहुत श्रद्धा से गाते गुनगुनाते हैं और गाते रहेंगे-
ओ जैन के दिवाकर ! मेरा प्रणाम लेना।
आया हूं मै शरण में, मुझको भी तार देना।।
इस प्रकार जैन दिवाकर जी महाराज का रतलाम का चातुर्मास अत्यंत ही गौरवशाली और ऐतिहासिक रहा। रतलाम चातुर्मास में ही ब्यावर साधु सम्मेलन के लिए मालव केसरी पं. सौभाग्यमलजी महाराज से विचार विमर्श कर के उपाध्याय पं. प्यारचन्दजी महाराज तथा मालवकेसरी जी महाराज का सम्मेलन में जाने का निश्चय हुआ। जैन दिवाकर जी ने पं. मुनि प्यारचंदजी महाराज को ब्यावर भेजते हुए संदेश दिया कि – संघ के कल्याण के लिए अपने संप्रदाय की सभी उपाधि का त्याग कर देना। यदि सभी मुनिवर एकमत हो जाय तो आचार्य अपने संतों में से मत बनाना। आचार्य श्री आनंद ऋषि जी महाराज को ही आचार्य स्वीकार कर लेना।
पचपनवां अंतिम – 2007 कोटा / इस चातुर्मास में तपस्वी श्री माणकचंदजी महाराज ने 42 उपवास किए। उस दिन भी तीनों संप्रदायों के आचार्यों दिगंबर जैन आचार्य श्री सूर्यसागर जी महाराज श्वेतांबर मूर्तिपूजक आनंदसागरजी महाराज और जैन दिवाकर श्री चौथमल जी महाराज का व्याख्यान सम्मिलित हुआ।प्रत्येक रविवार को सम्मिलित प्रवचन होते हैं।
कोटा चातुर्मास पूर्ण होने में अभी 15 दिन ही शेष थे। आपकी नाभि के नीचे एक फुंसी हो गई। पीड़ा बड़ती गई। ज्वर भी हो गया।डॉक्टर ने पेट में फोड़े की आशंका बताई। आप श्री ने दवाई नहीं लेने की इच्छा प्रकट की। मार्ग शीर्ष शुक्ला 9 रविवार की प्रातः बेला में पं. मुनि श्री प्रतापमलजी महाराज, प्रवर्तक पं.श्री हीरालालजी महाराज के परामर्श से जैन दिवाकर जी महाराज को उपाध्याय श्री प्यारचंदजी महाराज ने संथारा करवा दिया। कुछ मुनिगण शौचादि शारीरिक कृत्यों से निवृत्त होने गए। उनके लौटने के पूर्व ही गुरुदेव ने शरीर त्याग दिया।
दिवाकर अस्त होता है, तो नीचे को गमन करता है और जैन दिवाकर जी महाराज के ज्ञानपुंज आत्मा ने ऊपर की ओर उर्ध्वगमन किया।
ऑल इंडिया रेडियो पर आपके स्वर्गगमन का समाचार प्रसारित हुआ तो सबके मुख से ऐसे उदगार निकले – ऐसे संत वर्षों में अवतरित होते हैं। जो शुभ संस्कार उस ज्ञान के प्रकाश पुंज ने लोगों के हृदय में भरे वे दमकते रहे, चमकते रहे।