दया मतलब किसी को कम आंकना या किसी को उपकृत करना नहीं है, दया का मतलब अपने जैसी ही सुख दुख की अनुभूति समस्त प्राणीमात्र में है, ऐसी भावना मन में रखना -युवाचार्य प्रवर श्री महेन्द्रऋषिजी म.सा.

जलगाँव (दीवाकर दीप्ति – पारस मोदी) । ज्ञानीजनों को एक प्रश्न उपस्थित हुआ कि धर्म का मर्म क्या है? ऐसा कहा जाता है धर्म धर्म सब कोई कहे मर्म न जाने कोय । इस प्रकार जब, धर्म का अर्थ क्या है ? यह सवाल सामने आया तब तीन तत्व कहे गए । सर्वप्रथम जीव दयाइम रमिज्जइ यानी प्राणीमात्र पर दया करने में आनंद मानना ही धर्म है । उसे भगवान श्रीकृष्ण ने कहा आतमवत् सर्व भुतेषु, य: पश्चति स: पंडित । दया का अर्थ वहीं है । दया मतलब किसी को कम आकना या किसी को उपकृत करना नहीं है तो दया का मतलब अपने जैसी ही सुख दुख की अनुभूति समस्त प्राणीमात्र में है, ऐसी भावना मन में रखना । इसी को भगवान महावीर कहते है आयतुल्ले पयासु । अपने जैसे ही प्राणीमात्र को भी समझो । उक्त उदगार कांताई गुरू उपाश्रय दादावाड़ी में विराजीत श्रवण संघीय युवाचार्य प्रवर श्री महेन्द्रऋषिजी म.सा. ने व्यक्त किए ।
इस विषय में प्रसिद्ध प्रेरक कथा जैन साहित्य में देखने मिलती है । धर्मरूची मुनि शिक्षा के (गोचरी) लिए गए थे, एक महिला ने उन्हें लोकी की सब्जी आहारपात्रा में परोसी वह लेकर वे अपने गुरू के सम्मुख हुंचे । गुरू ने आहार देखा और अपने अनुभवी दृष्टि से भाँप लिया की सब्जी कड़वी लौकी से बनी है और इसमें मसाला आदि पदार्थ होने से वह विषयमय हो चुकी है । गुरूने मुनिजी आज्ञा दी कि साफ सुथरी जगह पर यह सब्जी डालकर आओ । धर्मरूचीमुनीजी गुरू आज्ञा मानकर ग्राम के बाहर गए और साफ सुथरी, शुद्ध जगह देखकर रूके । उन्होंने अपने पात्र में से सब्जी की एक बंदु उस जगह जमीन पर डाली । आपने देखा कि उस बुद की गंध से अनेक चिटियाँ आदि आसपास एकत्रित हुई, चिटियों ने सब्जी लचखते ही वह गतप्राण हो गई । यह दृश्य देखकर मुनिश्रई का हृदय व्यथित हो उठा । उन्होने सोचा अगर मैं जमीन पर डालूंगा तो बड़ा हा अनर्थ होगा । इतने जीवों की विराधना (मृत्यु) होने के बजाय मैं खुद यह प्राशन करता है । इस वजह से इतने सभी जीवों के प्राण बच जाएंगे । ऐसी विचार कर उन्होंने मन ही मन अपने गुरू क वंदन किया, अपनी समस्त पूर्व की गलतियों के लिए पछतावा करके एक ही बार में वह सब्जी प्राशन कर ली और समाधीपूर्वक अपने प्राण त्याग दिए । इस प्रकार भूतदया के लिए अपने प्राणों का भी त्याग करने वाला महान, आदर्श धर्मपुरूष होते है ।
आज के भौतिवादी, आधुनिक व स्वच्छंदी संस्कृति में भूतदा का विचार पीछे पड़ता नजर आ रहा है । जिव्हांरस की तृप्ति के लिए ताकत के नाम नीचे लाखों- करोड़ों प्राणीयों की हत्या कत्लखानों में हो रही है । सही धमें धर्म का अस्तित्व हमारे जीवन में कहां तक उपस्थित है ऐसा प्रश्न उठे, ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई है । क्योंकि धर्म की शुरूआत, धर्म का निर्माण दयाभाव के बिना असंभव है । विश्व का कोई धर्म हिंसा का समर्थन नहीं करता, न कर सकेगा। जब तक मानवमन में करूणा, प्रेम, दया का झरना प्रवाहित है, तब तक व्यक्ति को धार्मिक कहलाने का वास्तविक अधिकार है । जैसे हमने शुरूआत में देखा, धर्म का मर्म यही कि भूतदया में आनंद आना…. आज अनेक अलग-अलग कारणों से हिंसा का समर्थन करना, फिर वह आतंकवाद हो या अन्य कई भी हिंसा रहो उसमें आनंद मानना मतलब एक प्रार की आसुरी वृत्ती ही हुई। इसलिए हमने अपने दिलों में सर्व प्राणीयों के प्रति मंगल भावना का शुभचिंतक करना, हमारे हाथों से किसी को तकलीफ, कष्ट ना हो ऐसी भावना रखते हुए प्रत्येक कृति करना यही धार्मिकता का प्रथम लक्षण है ।