जैन दिवाकर पूज्य गुरुदेव श्री चौथमलजी म.सा.के 74 वर्ष पूर्व दिए गए प्रवचन दिनांक 01.10.1948 के अंश

“पंचम काल” से संबंधित तथ्य जिनका शास्त्रों में पूर्व में ही वर्णन किया गया है, सारांश में पढ़िए और पहचानिए वर्तमान में हम और हमारा श्रमण संघ कहां” ?

  • *साभार : जैन दिवाकर ज्योतिपुंज खंड 2/128 से 147 तक
  • प्रवचानांश दिनांक: 01.10.1948: पूज्य गुरुदेव जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज साहब।
  • प्रस्तुति : सुरेन्द्र मारू, इंदौर +91 98260 26001

पंचम काल या पंचम आरा
भगवान महावीर का निर्वाण होने पर करीब साढ़े तीन वर्ष बाद ही यह पांचवा आरा आरंभ हो गया। इस आरे में चौथे आरे के समान पवित्र एवं उज्जवल भावना नहीं रही। बड़ी शीघ्रता और तीव्रता के साथ परिवर्तन होने लगा ।
जमीन- जमीन में, पानी- पानी में और हवा- हवा में फर्क होता है। इन सब में मनुष्य के विचारों को प्रभावित करने की शक्ति होती है। एक हवा हिमवान पर्वत से, जिस पर नाना प्रकार की जड़ियां और बूटियां है, आती है। वह हवा अगर रोगी का स्पर्श करे तो अनेक बार दवा से भी अधिक लाभकारक होती है, उसके स्पर्श से रोगी रोगमुक्त हो जाता है। कहते ही हैं- सौ दवा और एक हवा। मगर आपका दिल गवाह दे तब काम चलता है। पक्का विश्वास होना चाहिए।
इसी प्रकार पानी – पानी में भी भेद है। खाने की चीजों में भी असर डालने की शक्ति है। कहावत है – जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन। गीता में भी कहा है कि- किसी वस्तु के खाने से बुद्धि की शुद्धि हो जाती है और किसी के खाने से वह अशुद्ध हो जाती है।
तात्पर्य यह है कि जैसे एक वस्तु दूसरी वस्तु को प्रभावित करती है, उसी प्रकार काल का भी जबरदस्त प्रभाव पड़ता है। इस प्रभाव से सर्व साधारण जनता की बुद्धि और भावना पलटती है। पांचवा आरा आरंभ होते ही लोगों की नियत बदल गई और ज्यों ज्यों वह आगे बढ़ रहा है, नीयत में परिवर्तन भी होता जाता है। पांचवा आरा इक्कीस हजार वर्ष का है। इसमें से करीब अढ़ाई हजार वर्ष से कुछ अधिक अभी बीते हैं। पांचवे आरे में क्या-क्या परिवर्तन होंगे, कैसी रचना होगी, मनुष्य की प्रकृति किस प्रकार होगी आदि सब बातें शास्त्रों में मौजूद है ।
*कहूं में पंचम आरे का बयान का,पहले ही फरमागए भगवान ।।
शिष्य अपने गुरु महाराज से पूछता है – “भगवान ! पांचवें आरे में दुनिया की क्या रचना होगी?”
गुरु महाराज फर्माते हैं – “पांचवां आरा चलते- चलते जब अपना पूरा प्रभाव दिख लाएगा तो बड़े-बड़े नगर मिटकर गांव बन जाएंगे और गांव मिटकर श्मशान बन जाएंगे। नारी कुल की लज्जा को त्यागकर स्वेच्छाचारिणी बन जाएंगी। राजा (सरकार व प्रशासक) लोग यमदूतों के समान हो जाएंगे। प्रजा को चूसना और भोग विलास ही उनका कर्तव्य रह जाएगा। फिर भी वे अल्प सुखी होंगे और उनके कर्मचारी लालची होकर प्रजा को परेशान करेंगे।”
“लड़के मां बाप का कहना नहीं मानेंगे। लड़कियों की भी यही हालत हो जाएगी। शिष्य भी गुरु की आज्ञा में नहीं चलेंगे। पापी लोग धन-धान्य से परिपूर्ण होंगे और सज्जन अल्प सुखी होंगे। निर्धनता का सर्वत्र दौरदौरा होगा। धनवान कम होंगे, विदेशी राजाओं (पड़ोसी देशों) के आक्रमण का सदा भय बना रहेगा, अर्थात – परचक्र का भय रहेगा। बस्ती कम होगी और जंगल ज्यादा होंगे।”
गुरु कहते हैं – ” पांचवें आरे में जीवो की भावना ही नहीं बदलेगी, बल्कि जड़ प्रकृति में भी परिवर्तन हो जाएगा। बार-बार दुर्भिक्ष होगा। कहीं अतिवृष्टि होगी, कहीं अनावृष्टि होगी। अधिकांश साधु – महात्मा भी अपना धर्म त्याग देंगे। कोई साधु का वेष धारण करके ख्याति, लाभ, यश – कीर्ति आदि प्राप्त करने की चेष्टा करेंगे।”
कोई भी बड़ा समूह पूर्ण रूप से निर्दोष नहीं होता। समूह में से कोई दो -चार गलत निकल जाते हैं तो उनके साथ दूसरे लोग भी बदनाम होते हैं। यही तो कारण है कि लोग ऐसे साधुओं को अपने घर में पैर नहीं रखने देते। पहले सब साधु पैदल ही चलते थे। जैन साधु किसी भी अवस्था में रेल, मोटर या बैलगाड़ी आदि पर सवार होकर यात्रा नहीं करते। इससे बहुत लाभ होते हैं। पैदल घूमने से गांव – गांव की जनता को साधुओं की संगति करने का और उनके नैतिक उपदेशों को सुनने का अवसर मिलता है। ग्रामीण जनता में जागृति लाने का यही सर्वश्रेष्ठ उपाय है। इससे पवित्र वायुमंडल तैयार करने के लिए पैदल प्रवास से बढ़कर और कोई उपाय नहीं है। (वर्तमान की तस्वीर तो कुछ अलग ही दृष्टिगोचर होती है।)
हम साधु भी अगर रेल में सफर करने लगे तो गांवों की जनता का पथप्रदर्शन कौन करेगा ? भारत में सात लाख गांव हैं। गांव में करोड़ों आदमी रहते हैं,उन्हें धर्म और नीति की शिक्षा प्रायः साधुओं से ही मिलती है। अगर साधु भी ग्रामों की उपेक्षा कर दे तो धर्म और नैतिकता भी नगरों की ही वस्तु बन जाएगी। ग्रामों में धर्म नहीं रह जाएगा। करोड़ों लोग पथ – प्रदर्शन के अभाव में गिर जाएंगे। जब ग्रामों में अधर्म और अनीति फैल जाएगी तो नगर कब सुरक्षित रह सकेंगे?
वैष्णव – ग्रंथ में उल्लेख आता है कि साधु को रुपए – पैसे देने वाला नरक – कुंड में गिरता है। साधु अपने पास रुपया – पैसा रखे तो उसमें और गृहस्थ में अंतर ही क्या रहे? अर्थ अनर्थ का मूल है। अर्थ के बदले जीवन बिगाड़ना पड़ता है। अतएव साधु रुपए – पैसे को सर्प के समान समझकर उससे दूर ही रहते हैं, ऐसा करने में ही साधु का कल्याण है।
साधु को मकान बनवाने की भी आवश्यकता नहीं है। साधु को अनगार कहा गया है। इसका मतलब ही यह है कि वह कोई निश्चित घर बनवा कर सर्वदा स्थायी होकर उसमें न रहे। उसकी मालिकी का कोई घर नहीं होना चाहिए। “साधु के गृह होगा तो वह गृहस्थ ही कहा जाएगा। उसे अनगार अर्थात – अगार (घर) से रहित कैसे कहा जा सकता है? वास्तव में साधु का कोई नियत निवासस्थान नहीं होता। वह तो रमता राम ही भला है। घूमते – फिरते, प्रभु के नाम का अलख जगाते, जहां कहीं पहुंच जाए, वहां पहुंच जाए। जहां पहुंचे, निर्दोष मकान न मिले तो श्मशान में जाकर छतरियों में रह जाए। वह भी सुलभ न हो तो किसी वृक्ष के नीचे आसन जमा ले। कुछ समय ठहर कर फिर आगे की राह पकड़े। वह भ्रमण करता ही रहे। इसी आशय से “परिव्राजक” शब्द बना है। परिव्राजक का अर्थ है – घूमता फिरता रहने वाला।
असली सन्यासी आग का भी स्पर्श नहीं करता। जब भिक्षा ही उसकी आजीविका है तो भोजन आदि पकाने की झंझट में उसे नहीं पड़ना चाहिए। उसे सर्दी से बचने के लिए आग का उपयोग नहीं करना चाहिए। सन्यासी सहनशील होता है। सुकुमारता उसे शोभा नहीं देती। मतलब यह है कि शौकीन नहीं होना चाहिए। अगर वह सुंदर वेषभूषा की ओर ध्यान देगा तो परमात्मा में उसका ध्यान नहीं रहेगा। वह भोगों की ओर खिंचता चला जाएगा और अंत में पतन हुए बिना नहीं रहेगा। क्योंकि जो पहले – पहले ही विवेक नहीं रखता, उसका पतन अवश्यभावी है। भर्तृहरि कहते हैं –
विवेकभ्रष्टानाम भवति विनिपात: शतमुखः ।
कोई भी आदमी जब गिरता है और संभलने की कोशिश नहीं करता तो लगातार उसका पतन होता ही जाता है। अतएव पतन से बचने के लिए पतन का प्रारंभ ही नहीं होने देना चाहिए। साधु बनाव सिंगार में पड़ जाए तो उसका पतन हुए बिना रह ही नहीं सकता। इसीलिए साधु को उघाड़े पैर और नंगे सिर रहने का विधान है।
कोई बैठे हाथी – घोड़ा, पालकी मंगाय के।
साधु चले नंगे पैंया चींटी को बचाय के।।
तुलसी मगन भया हरि गुण गाय के।। ध्रुव।।
आज अनेक साधु कहलाने वाले भी हाथी, घोड़े और पालकी (वर्तमान में इनकी जगह चार पहिया कार, बैटरी वाले वाहन) पर सवार होकर राजा – रईसों की भांति ठाठ के साथ चलते हैं, मगर सच्चा साधु वही है जो नंगे पैरों चलता है और चिउंटी आदि जीव-जंतुओं को बचाता हुआ चलता है। उसके चलने से किसी जीव को कष्ट नहीं होता।
कई लोग अपने पास तो धन नहीं रखते मगर दूसरे के पास जमा कर देते हैं और उसका ब्याज आता रहता है। मगर जिसके पास धन होगा, क्या उसके पास लुके छिपे अन्य बुराई नहीं आएगी?
हम आपको त्याग का उपदेश देते हैं और उपदेश के बदले कल्दार मांगने लगें तो क्या उस उपदेश का प्रभाव पड़ेगा? यहां तक कि सुनने वाले भी कम हो जाएंगे। वक्ता के वचनों की अपेक्षा उसके जीवन व्यवहार का असर अधिक पड़ता है। जो वक्ता स्वयं त्यागमय जीवनयापन नहीं करेगा वह अपने उपदेश से दूसरों को त्यागशील नहीं बना सकेगा।
साधु होकर साधे काया, कौड़ी एक न रक्खे माया।
लेना एक न देना दोय, ऐसा पंथ साधु का होय।।
साधु रेवे सावधान, राखे नहीं पाव धान।
जो लावे सो देय चुकाय, वासी बचे न कुत्ता खाय।।

“साधु अपनी समस्त इंद्रियों को और मन को अपने वश में रखता है। वंश, धन – संपदा के नाम पर एक कौड़ी भी अपने पास नहीं रखता। साधु का किसी भी गृहस्थ से कोई लेन-देन – सरोकार नहीं होता। वह गृहस्थों के घर से निर्दोष भिक्षा लाता है और आवश्यकता से अधिक नहीं लाता, जितनी लाता है उतनी खाता है। कल खाने के लिए आज कुछ भी लाकर नहीं रखता। साधु का जीवन ऐसा निरपेक्ष होता है कि आगे की उसे चिंता नहीं होती”।
भिक्षा के अतिरिक्त किसी और वस्तु की आवश्यकता हो तो गृहस्थ से मांग लेता है और काम निकाल कर वापिस दे देता है। रात को एक सुई भी अपने पास नहीं रखता। साधु लेने के नाम पर ईश्वर का नाम लेता है और देने के नाम पर धर्म का उपदेश देता है।
साधु आज साधुत्व की मर्यादा को पालन करते हुए गांव – गांव और नगर- नगर में भ्रमण करें तो आज हिंदुस्तान फिर एक बार गुलजार हो सकता है। मगर कितने साधु हैं आज इसे पालने वाले? भारत में साधु कहलाने वालों की संख्या लाखों में है, मगर खेद है कि पंचम आरे के प्रभाव से उन्होंने अपनी मर्यादा छोड़ दी हैं। इस पंचम आरे के प्रभाव से साधु लोग अपने उच्च आचार विचार से डिग रहे हैं और भक्तों की भावना भी बदलती जा रही है।
पांचवे आरे में गोरस की अर्थात – दूध, दही, घी, मक्खन आदि की शक्ति भी कम हो जाएगी। गोरस की शक्ति में तेजी के साथ कमी हो रही है। अनुभवी वृद्ध लोगों का अनुभव बतलाता है कि पहले दूध, घी आदि में जितनी शक्ति थी, उतनी आज नहीं रही है। जितनी शक्ति आज है उतनी आगे नहीं रहेगी। जब गोरस की शक्ति क्षीण हो रही हो तो मनुष्यों की शक्ति का क्षीण हो जाना भी स्वाभाविक है।
प्रथम तो काल के प्रभाव से शक्ति कम हो गई है जिस पर आज कल,खास तौर से शहरों में उसमे मिलावट भी होने लगी है। आज असली घी, मिलना कठिन है। बनावटी घी, जिसे बुद्धिमानों ने स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बतलाया है, आजकल चल पड़ा है। शुद्ध घी के नाम पर भी वही मिला – जुला मिलता है। दूध में पानी मिलाया जाता है। पानी मिलाने से दूध पतला मालूम न हो इसके लिए जौ आदि का आटा उसमें घोल दिया जाता है। मक्खन निकाले हुए दूध का दही जमाया जाता है। यह हाल है आजकल गोरस का।
पांचवे आरे में जिंदगी भी कम हो जायगी, बुद्धि भी कम होगी, शारीरिक शक्ति भी कम हो जाएगी। धीरे – धीरे ऐसी बस्तियां भी कम हो जाएंगी, जहां मुनि चौमासा कर सकें।
गुरु शिष्य को ज्ञान कम सिखलाएंगे और शिष्य, गुरु की बुराई की ओर ही विशेष ध्यान रखेंगे। सच्चे साधु महात्मा कम होंगे, भेषधारी साधु बहुत होंगे जो दया दान का निषेध करने वाले होंगे। यही नहीं, साधुओं में फूट हो जाएगी और नाना गच्छ – गण आदि उत्पन्न हो जाएंगे। संप्रदाय अलग – अलग हो जाएंगे और संप्रदायवाद का भूत उन पर सवार रहेगा। हां, अगर श्रावकों में एकता का भाव होगा तो साधुओं की क्रिया प्रकट रूप में ठीक रहेगी और उनमें एकता भी हो जाएगी। अन्यथा फूट होने से काम बिगड़ता ही जाएगा।
कई लोग कहते हैं – संप्रदायों का नाश हो। मगर वास्तव में संप्रदायों में बुराई नहीं है, संप्रदायवाद में बुराई है। संप्रदायवाद के वश होकर लोग अपने दिल और दिमाग को संकीर्ण बना लेते हैं। एक संप्रदाय का अनुयायी दूसरे संप्रदाय वालों की निंदा करता है, उनके सद्गुणों को भी दुर्गुणों के रूप में देखता है। अपने अवगुणों की ओर ध्यान नहीं देता। लोग आपस में टकरा – टकरा कर अपनी शक्ति को नष्ट करते हैं। सभी संप्रदाय भले बने रहे हैं, अगर उन्हें पारस्परिक सदभावना हो, एक दूसरे के प्रति सहायक और पोषक होने की उदारता हो और शासन को दिपाने की सच्ची लगन हो तो संप्रदायों की अनेकता भी हानिकारक नहीं होती। मगर काल के प्रभाव से ऐसा होता नहीं है। इस प्रकार आज छोटे-छोटे संप्रदायों की जगह एक विशाल और सम्मिलित संघ बनाने की आवश्यकता है। (आज हमारा वृहद श्रमण संघ इसी सोच, प्रयास और त्याग का परिणाम है।)
जैन संघ ने संप्रदायवाद से होने वाली हानियों को भलीभांति अनुभव कर लिया है। संप्रदायवाद का ही यह फल है कि आज एक संप्रदाय का साधु दूसरे संप्रदाय के साधु से मिलने में वार्तालाप करने में एवं मिलजुल कर धर्मध्यान करने में पाप समझता है। एक साधु दूसरे साधु के पाससे निकल जाएगा, मगर बातें नहीं करेगा।
हमारे पवित्र णमोकार मंत्र में कहां बाड़ेबंदी की गंध है? उसमें कहा है – नमो लोए सव्व साहुणम। अर्थात – इस लोक में जितने भी साधु हैं उन सब को नमस्कार हो। मंत्र में यह कहीं नहीं बतलाया कि अपने संप्रदाय के साधुओं को नमस्कार करो और इतर संप्रदायों के संयमशील, तपोधन साधुओं को नमस्कार मत करो। फिर यह संकीर्णता कहां से आई ? यह लोगों के अपने दिमाग की उपज है।
अगर कोई साधु आपसे कहे कि उनके पास मत जाओ तो कहना कि हम आपके पास नहीं आएंगे। महाराज मुश्किल से पंद्रह मिनट निकालकर हम आत्म कल्याण करने के लिए आते हैं और आप हमें अकल्याण का मार्ग बताते हैं। आप तिरने का नहीं डुबोने का रास्ता क्यों दिखलाते है?
फिर भी पांचवा आरा एकांत धर्महीन नहीं होगा। धर्म का प्रकाश मौजूद रहेगा और वह कभी मंद और कभी तीव्र हो जाएगा। इस आरे में भी आत्म कल्याण की इच्छा रखने वाले अपना कल्याण कर सकेंगे। बड़े-बड़े मुनिराज और श्रावक भी होंगे।
*साभार : जैन दिवाकर ज्योतिपुंज खंड 2/128 से 147तक
प्रवचानांश दिनांक: 01.10.1948: पूज्य गुरुदेव जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज साहब।
प्रस्तुति : सुरेन्द्र मारू, इंदौर +91 98260 26001