भगवान महावीर की विशुद्ध परम्परा निग्र्रन्थ, श्रमण, सुविहित आदि विविध रूपों का पार करती हुई समय के प्रभाव से स्थानकवासी के नाम से पुकारी जाने लगी। ‘स्थानकÓ शब्द का अर्थ बहुतव्यापक और उत्कृष्ट उद्देश्यों का द्योतक रहा है। यह पौषध, संवर, समायिक आदि धार्मिक क्रियाओं को सम्पन्न करने का स्थान है। छ: काय के जीवों की विराधना टालकर धार्मिक अनुष्ठान को सम्पन्न कराने का स्थान स्थानक है।
मौलिक मान्यताएँ
स्थानकवासी परम्परा की मौलिक मान्यताएँ इस प्रकार हैं-
(1) 32 आगम ही प्रमाण ग्रन्थ हैं- तीर्थंकर भगवान केवलज्ञान के बाद अर्थरूप से देशना फरमाते हैं, जिसे सुनकर गणधर सूत्र रूप से रचना करते हैं, वे सूत्र, आगम कहलाते हैं। 10 पूर्वी तक की सारी रचनाएँ आगम हैं। 10 पूर्वी से 1 पूर्वी तक की वहीं रचना स्वीकार होगी जो आगम से विरोधी न हो। (2) सावद्य योग से विरत ही धर्म तीर्थ है- तीर्थ चार प्रकार के वर्णों (वर्गों) से युक्त श्रमणसंघ है। यथा-श्रमण,श्रमणियाँ श्रावक और श्राविकाएँ। तीर्थ- जिसके द्वारा तिरा जाय। अर्थात् जिसके द्वारा संसार समुद्र से तिरा जाय, वह तीर्थ है।
(3) सर्व सावद्य योग से विरत ही वंदनीय पूजनीय होता है- पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति का पालन करने वाले, छ: काय के जीवों की रक्षा करने वाले, छ: जीवनिकाय के जीवों का आरम्भ समारम्भ न करने वाले, न कराने वाले और न ही इस प्रकार का कार्य करने वाले का अनुमोदन करने वाले, ऐसे सर्व सावद्य योग से विरत ही वंदनीय पूजनीय होते हैं।
(4) जड़ पदार्थों में भगवद्दशा तो दूर सावद्य-योग के त्याग का आरोपण भी सम्भव नहीं – भगवान सचेतन है, मूर्ति जड़ है। भगवान अरूपी है, मूर्ति रूपी है। जड़ अवन्दनीय है, भगवान वन्दनीय है*।
*जड़ में योग अथवा सावद्य-योग-त्याग का प्रश्न ही नहीं। सावद्य-योग त्याग रूपी संवर तो सन्नी पंचेन्द्रिय कर्मभूमिज आर्य मनुष्य के अलावा कहीं भी सम्भव नहीं, फिर भगवद्दशा का तो कहना ही क्या? जड़ को चेतन मानना, रूपी को अरूपी मानना, संसारी को मुक्त मानना आदि अनेक प्रकार के मिथ्यात्व भी लगने का प्रसंग होता है।
(5) 5 पद भाव निक्षेप की अपेक्षा ही है – निक्षेप 4 प्रकार के बतलाये हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। भाव की ही प्रधानता है। इसी शुद्ध मान्यता का निर्वहन करते हुए छठे गुणस्थान व उससे ऊपर आत्मभाव में लीन महापुरूषों को पंच परमेष्ठी में समाविष्ट किया है। अत: भाव निक्षेप की महत्ता स्पष्ट है। वन्दनीय तो व्यक्ति गुणों से ही होता है। तीर्थंकर बनने वाली आत्मा भी तब ही वन्दनीय बनती है जब वह चारित्र गुण को धारण करती है। चारित्र के अभाव में चतुर्थ गुणस्थानवर्ती देव भी वन्दनीय नहीं होता, अत: भाव निक्षेप ही वन्दनीय है।
(6) मुखवस्त्रिका – स्थानकवासी परम्परा की पहचान मुखवस्त्रिका से होती है, जो 16 अंगुल चैड़ी और 21 अंगुल लम्बी होती है। जीव-यतना के लिए डोरे सहित मुखवस्त्रिका मुख पर बाँधनी चाहिए। शास्त्रों का पठन-पाठन करते-करवाते समय मुख में से थूँक उछल कर न गिरे।
(7) स्थानकवासी परम्परा में जादू, टोना, यन्त्र, मन्त्र, आडम्बर, नित नये विधानों का प्रचलन, थोथे चमत्कारों एवं भौतिक प्रलोभनों को कोई स्थान नहीं है।
(8) स्वाध्याय, ध्यान, चिन्तन, मनन, स्तवन, आत्म-रमणरूपी भाव पूजा ही महत्वपूर्ण है।
(9) काल की बदली हुई परिस्थितियों में आगमसम्मत श्रमणाचार का पालन हो सकता है
(10) दया-भाव से गरीबों को दान देना पाप नहीं है, अपितु पुण्य का कारण है।
(11) स्थानकवासी परम्परा सामायिक, स्वाध्याय और साधना पर विशेष रूप से आधारित है, मन्दिर आदि पर नहीं।
(12) स्थानकवासी परम्परा के अनुसार- धर्म के नाम पर हिंसा को कोई स्थान नहीं है। सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। सब में हमारे समान आत्मा है।
(13) यतना ही धर्म का प्राण है। इसलिए छह काय के जीवों की अहिंसा पालन में यतनावान् रहना। मन्दिर आदि बनाना, धूपादि देना, चँवर ढुलाना, नृत्यादि करना, फूल चढ़ाना आदि क्रियाएँ यतना को समाप्त करने वाली हैं*।