विद्वान से कहीं अधिक बड़ा विद्यावान होता है – भागवताचार्य पंडित योगेश्वर शास्त्री

रतलाम । विद्वान होना अधिक महत्वपूर्ण या बड़ी बात नहीं है । बड़ी और महान बात यह है कि आप कितने विद्याशील है । समाज हमेशा विद्वानों का सम्मान करता है, लेकिन विद्या वान जन्म-जन्मांतर तक पूजनीय रहता है । रावण बहुत विद्वान था वेद शास्त्री था मर्मज्ञ महापंडित था भगवान शिव का महाभक्त था अनेको सिद्ध शक्तियां उसके पास थी लेकिन अपने आचरण और दुष्ट विचारों के कारण आज तक निंदा और घृणा का पात्र बना हुआ है और सदियों तक बना रहेगा । वहीं यदि विद्याशीलता की बात करें तो भगवान हनुमान जी का नाम लेना ही पर्याप्त है । बुद्धि, बल, चतुरता और पुरुषार्थ का समग्र स्वरूप हनुमान जी के चरित्र में दिखाई देता है । बुद्धीमता के साथ-साथ विनयशीलता का पर्याय थे हनुमान जी रामायण काल से लेकर वर्तमान समय तक हनुमान जी सर्वाधिक पूजनीय देवताओं में गिने जाते हैं । हनुमान जी ने अपने पुरुषार्थ और अतुलित बल शक्ति से संपूर्ण सोने की लंका को जलाकर राख कर दिया था लेकिन इसका श्रेय उन्होंने कभी नहीं लिया । वह हमेशा भगवान श्री राम की कृपा को सर्वोपरि मानते थे आज भी लोग विद्वता और विद्यावान में अंतर नहीं कर पाते हैं । विद्वान होना संसाधन और प्रलोभन का परिणाम रहता है और विद्यावान सदा परमार्थ का भाव लेकर अपना कार्य करते हैं । अपने ज्ञान और विद्या का उपयोग सर्वांगीण समाज के लिए करते हैं । लोगों की रक्षा के लिए करते हैं लोगों का जीवन सुधारने के लिए करते हैं । श्रीमद् भागवत कथा में अनेकों पौराणिक कथाएं इस बात का प्रमाण है कि भाग्यवान होना और महाभाग्यशाली होना दोनों अलग-अलग रूप से अपनी स्थिति को प्रकट करते है, दुर्योधन भाग्यशाली था जो राज्यकुल में पैदा हुआ लेकिन बालक ध्रुव राज कुल में पैदा होने के बाद अपने चरित्र से सर्वथा पूजनीय और अजर अमर चरित्र के रूप में विख्यात हुए । भगवान श्री कृष्ण ने भी अपनी लीलाओं में इन चरित्र का उत्तम तरीके से प्रयोग किया है ।
उपरोक्त उदगार स्थानीय मंगल मूर्ति रेसीडेंसी में चल रही श्रीमद् भागवत कथा के छठे दिन वेदमर्मज्ञ भागवताचार्य पंडित योगेश्वर शास्त्री जी ने व्यक्त किए । आपने भगवान श्री कृष्ण के चरित्र को बाल्यकाल से लेकर मथुरा वृंदावन में कंस युद्ध और उसके विनाश का बहुत ही संवेदनशील चित्रण करते हुए युद्ध की प्रासंगिकता को दर्शाया। जरासंध वध और द्वारिका निर्माण का औचित्य बताते हुए आपने कहा कि द्वारकाधीश भगवान श्री कृष्ण रणछोड़ नहीं थे । अपितु जरासंध ने मगध से लेकर मथुरा तक  ब्राह्मणों के वध की जो प्रतिज्ञा ली थी उससे ब्राह्मणों को बचाने के लिए द्वारका प्रस्थान कर गए थे,वहां जाकर वैभवशाली द्वारिका का निर्माण किया था । श्रीमद् भागवत कथा में वर्णित गाथाएं मनोरंजन या हास्य विनोद के लिए नहीं है । अपितु जीवन के मर्यादित आचरणो का प्रतिबिंब है  । आपने श्री कृष्ण रुक्मणी विवाह प्रसंग को प्रयोगात्मक रूप से करवाते हुए तुलसी विवाह की मान्यता को भी प्रतिपादित किया । दोनों सनातन संस्कार वर्तमान समय तक क्रियाशील है । विवाह संस्कार और तुलसी विवाह हमारी सनातन सभ्यता और संस्कारों का अनिवार्य अंग बन गया है । जो समाज में आदर्श जीवन की कल्पना को साकार करता है। जीवन में तुलसी विवाह करवाना या उसका साक्षी बनना परम पुण्य कर्म का कारण बनता है ।
कथा आरंभ होने के पूर्व महापौर श्री प्रहलाद पटेल ने पोथी पूजन कर स्वामी जी का सम्मान किया एवं भजन गाकर उपस्थित श्रद्धालुओं को मोहित कर दिया । कथा पश्चात आरती में समाजसेवी संजय दवे, लायंस क्लब की रीजन चेयरपर्सन प्रेमलता दवे, पूर्व एमआईसी सदस्य सूरज सिंह जाट, पूर्व पार्षद कांग्रेस नेता राजीव रावत, वर्तमान पार्षद आशा रावत, निमिष व्यास, जगदीश सोनी, कमलेश पालीवाल, शरद चतुर्वेदी,  एलआईसी शाखा प्रबंधक मनोज खंडेलवाल, पंकज सक्सेना, हेमेंद्र उपाध्याय, राजेंद्र मेहता, समग्र शिक्षक संघ के कमल सिंह सोलंकी, नरेंद्र सिंह चौहान, चरण सिंह यादव आदि ने आरती में सम्मिलित होकर पोथी पूजा एवं पंडित योगेश्वर शास्त्रीजी का सम्मान किया ।
श्री कैलाश शर्मा, महेश शर्मा, दिनेश शर्मा, सुनील शर्मा, निखिलेश शर्मा, मनीष शर्मा, प्रियेश शर्मा, श्याम सुंदर भाटी, भगवती लाल सालवी, विजय यादव, राधावल्लभ व्यास, देवेंद्र हाडा, ओ.पी. जोशी, कैलाश व्यास, विनोद शर्मा, राजेंद्र व्यास, रीशल पुरोहित आदि उपस्थित थे। संचालन दिलीप वर्मा तथा अभार प्रगति शर्मा ने व्यक्त किया ।

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