केवल जैन के घर में जन्म लेने से जैन नही बन सकते है, जैसे डॉक्टर के घर में जन्म लेने मात्र से कोई डॉक्टर नही बन जाता है – पूज्या श्री रत्नप्रभाजी मसा

रतलाम । दो प्रकार के धर्म बताए गए है, आगार धर्म और अणगार धर्म। आगार धर्म श्रावक के लिए और अणगार धर्म संत सतियो के लिये होता है। आगार धर्म को अपनाने वाला ही श्रावक कहलाने का हकदार होता है, श्रावक जब तक श्रावक के 12 व्रतों में से कम से कम एक व्रत को धारण नही करता तब तक उसे श्रावक नही कह सकते है।
श्रावक के 12 व्रतों में पहला व्रत है अहिंसा अणुव्रत । संसार में होने वाली प्रत्येक हिंसा में जो पाप लगता है उसका कुछ अंश पाप आपको भी लगता है, भले ही आप उस हिंसा से प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हुए नही हो, इस बात को आप ऐसे भी समझ सकते है की आपका बंगला है जो कई महीनों से बन्द है, लेकिन फिर भी उसमें बिजली पानी का बिल आता है, भले ही वो नॉमिनल आए लेकिन वो आपको भरना पड़ता है, ऐसा ईसलिये होता है क्योंकि नल और बिजली का कनेक्शन जुड़ा हुआ है अगर आप कनेक्शन कटवा लेंगे तो बिल नही आएगा, वैसे ही संसार की हिंसा से आपका कनेक्शन जुड़ा हुआ है, आप इस कनेक्शन को त्याग और प्रत्याखान से काट सकते है, संकल्प पूर्वक यदि आप हिंसा के त्याग के प्रत्याख्यान लेते है तो संसार में होने वाली हिंसा के पाप से बच सकते है। जीव 5 प्रकार के होते है एकेन्द्रिय (प्रथ्वी, अग्नि, वायु, पानी और वनस्पति के जीव) श्रावक के लिये एकेन्द्रीय की हिंसा रोकना सम्भव नही है । शंख, सीप, कृमि-जोंक, केचुआ, लट आदि दो इन्द्रिय जीव हैं। कुन्थु, चींटा, चींटी, जूँ, खटमल, बिच्छू आदि तीन इन्द्रिय जीव हैं। डांस, मच्छर, मक्खी, भौंरा, बर्र, ततैया आदि उड़ने वाले जीव चतुरिन्द्रिय जीव हैं। हाथी, घोड़े, कबूतर, मछली आदि तिर्यंच, मनुष्य, देव तथा नारकी ये सब पंचेन्द्रिय जीव हैं। संसार में रहते हुए अनजाने में या मजबूरी वश बेन्द्रीय, तेंद्रीय और चतुरिन्द्रिय जीव की हिंसा हमसे हो सकती है । लेकिन पंचेन्द्रीय जीव की हिंसा हमें किसी भी सूरत में नही करना है । पशु, पक्षी, मनुष्य को मारना खत्म कर देना इस हिंसा को न करने का त्याग लेकर आप श्रावक के पहले अणुव्रत अहिंसा का पालन कर सकते है। भ्रूण हत्या भी पंचेन्द्रीय जीव की हत्या है।
यह सारगर्भित प्रवचन पूज्या श्री रत्नप्रभा जी महासति जी ने फरमाए और साथ ही उनकी प्रेरणा से सभा में उपस्थित प्रत्येक श्रावक श्राविका ने खड़े होकर आजीवन अहिंसा अणुव्रत के प्रत्याख्यान महासती जी से ग्रहण किये।
मनुष्य का मन हट, हॉस्पिटल, होस्टल और होम के प्रकार का होता है : पूज्या श्री मोक्षिताश्री जी मसा
मानव का मन बहुत चंचल होता है ये पल पल में बदलता है। जैसे सूर्यमुखी का फूल सूर्य के सामने खिलता है वैसे ही हमारा मन स्वार्थ के हिसाब से बदलता रहता है, मन गिरगिट की तरह रंग बदलता है। मन हट (झोपड़ी) के समान भी होता है मतलब गन्दा और अस्त व्यस्त रहता है, मन में हमेशा गंदगी भरी रहती है। मन हॉस्पिटल के समान भी होता है : थका हुआ, डरा हुआ, उत्साह विहीन। मन होटल के समान भी होता है : सुख सुविधा है लेकिन निर्मलता नही है पवित्रता नही है।
मन होस्टल के समान भी होता है। जिसमें सुरक्षा है, अनुशाशन तो होता है लेकिन प्रसन्नता नही होती है। सबसे अच्छा मन होता है होम (घर) के समान जँहा सुरक्षा भी है, सुख सुविधा, निर्मलता, और प्रसन्नता सबकुछ है। यँहा धन्यवाद भी है शिकायत भी है। जिसका मन होम जैसा होता है वो हर जगह आदर सत्कार एंव सम्मान पाता है। इस मन के द्वारा ही हम पतन के रास्ते पर भी चल सकते है और उत्थान के रास्ते पर भी।
मन दूध के समान है जिसमें नींबू डालो तो फट जाएगा और शक्कर डालो तो मिठाई बन जाएगा।
मन घी के समान है जिसे आग में डालो तो आग और बढ़ जाएगी, राख में डालो तो बेकार हो जाएगा, खिचड़ी या हलवे में डालो तो खिचड़ी या हलवे का स्वाद बढ़ जाएगा और दीपक में डालो तो प्रकाश कर देगा।
रावण ने घी को आग में डालने का काम किया, सुपर्णखा ने राख में डाला लक्ष्मण ने खिचड़ी में डालने जैसा भरत ने हलवे में और राम ने दीपक में घी डालने का काम किया। हमें अपने मन को दीपक में घी डालने जैसा बनाना है जिससे सर्वत्र प्रकाश फैले ।
हम बहाना बना लेते है की सामायिक में ध्यान में मन नही लगता ईसलिये सामायिक और ध्यान नही करते है। हम दुकान खोलते है ग्राहक नही आए या ग्राहकी कमजोर हो तो क्या हम दुकान बंद कर देते है नही करते है वैसे ही भले ही सामायिक में मन नही लगे फिर भी सामायिक करने से वचन और काया की हिंसा से तो बच ही जाते है तो 100 में से 66 नम्बर तो मिल ही गए अब मन तो थोड़ा थोड़ा एकाग्र करेंगे तो ये नम्बर 66 से 100 की और अवश्य जाएगा। अपने मन को मंदिर बनाओ। व्यर्थ है शिवालय जाना अगर हमने अपने मन को शिवालय नही बनाया।