रतलाम । जिनशासन प्रभाविका, ज्ञानगंगोत्री, मेवाड़ सौरभ उपप्रवर्तिनी बाल ब्रम्हचारी मालवकिर्ती पू.श्री किर्तीसुधाजी म.सा ने नीमचौक स्थानक पर धर्मसभा को सम्बोधित करते कहाकि अंतरयामी जिनेश्वर परमात्मा की भक्ति आदि व्याधि को दूर कर देती है। भक्ति करते-करते अनन्त-अनन्त आत्माएँ मोक्ष पँहुच गई है, प्रार्थना भटकती पापी आत्मा को पुण्यात्मा भाग्यशाली बना देती है। प्रार्थना करते-करते यदि उत्कृष्ट रसायन आ जाए तो तीर्थंकर गोत्र का बंध हो सकता है।
आप सबने भक्ताम्बर की महिमा तो सुनी है, ये भी सुना है की आचार्य मणतुंगाचार्य ने कारागार में इसकी रचना की थी लेकिन किन परिस्थियों में की थी।
सातवीं शताब्दी में धार नगरी में राज भोज का शासन था। उसकी सभा में 500 साहित्यकार और 7 विद्वान कवि थे । वो उस समय के जाने माने प्रकांड पंडित थे। उन सात कवियों में भी 2 कवि मयूरभट्ट व बाणभट्ट का विशेष बोलबाला था।
मयूरभट्ट की लड़की शादी लायक हुई तो उसने सोचा इसका विवाह बाणभट्ट से करवा दूँ राज दरबार का जाना माना कवि है, मयूरभट्ट ने बाणभट्ट के पिता को प्रस्ताव रखा हो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और विवाह संपन्न हुआ। पति पत्नि में अच्छा प्रेम था, लेकिन पत्नि गुस्से की बहुत तेज थी उससे गलत बात बर्दाश्त नही होती थी। एक बार दोनों में कुछ मन मुटाव हो गया, बाणभट्ट ने कुछ ऐसी बात कह दी तो उसे बर्दाश्त नही हुई वो गुस्से में आग बबूला हो गई और जोर-जोर से लडऩे लगी बाणभट्ट ने माफी भी माँगी लेकिन वो सुनने को तैयार नही हुई, लड़ते लड़ते रात हो गई और भौर का समय हो गया।
उस वक्त लोग नित्यकर्म के लिये जंगल में जाते थे, लड़की का पिता भी सुबह नित्यकर्म के लिए उसके घर के रास्ते से होकर निकला और उसे उनके घर में से लडऩे की आवाज आई बाणभट्ट लड़की से झुक का क्षमा मांगता है लेकिन वो पावँ की झांझर से उसे मार देती है, लड़की के पिता को झरोखे के बाहर आवाज आती है तो उसे दु:ख होता की बेटी का गुस्सा ठीक नही है वो बाहर से ही उसे समझाता है, उसकी लड़की और ज्यादा गुस्सा हो जाती है और कहती है की आपको हम पति पत्नि की गुप्त बाते नही सुनना चाहिए थी आपको इसकी बहुत बुरी सजा मिलेगी और उस वक्त उसके मुँह में पान था उसकी पीक वो अपने पिता को मुँह पर थूक देती है और पिता (मयूरभट्ट) के पूरे शरीर पर कोढ़ हो जाता है। मयूरभट्ट घर चला गया और कुष्ठ के कारण घर से बाहर निकलना बंद कर दिया । 3/4 दिन वो राजसभा में नही गया तो राजा भोज ने मयूरभट्ट के बारे में पूछा तो बाणभट्ट जो की मयूरभट्ट से ईष्र्या भी रखता था ने राजा से कहा वो राज दरबार में कैसे आएंगे उन्हें तो कुष्ट रोग हो गया है । राजा को यकीन नही हुआ उसने मयूरभट्ट को सभा में आने का बुलावा भेजा तो वो पूरा शरीर कम्बल आदि से ढक कर राजसभा में पँहुचा । मयूरभट्ट और सभासदों ने उसका उपहास उड़ाया, लेकिन राजा भोज ने कहा कोई बात नही घर जाकर आराम करो और जब ठीक हो जाओ तब आ जाना । मयूरभट्ट घर गया लेकिन अपमान की अग्नि में जल गया और उसने 3 दिन तक बिना कुछ खाये पिये सूर्य देव की कड़ी तपस्या की सूर्यदेव उसकी तपस्या से प्रसन्न हुए और उसका कुष्ट रोग खत्म कर दिया। वो स्वस्थ्य होकर राजसभा में पँहुचा तो राजा ने पूछा मात्र 3 दिन में तुम अच्छे कैसे हो गए उसने कहा की सूर्यदेव की कठोर साधना करने से में ठीक हुआ। राजा प्रसन्न हुआ ।
लेकिन मयूरभट्ट बोला इसमें कौन से बड़ी बात है साधना का फल तो मिलता ही है आप मेरे हाथ पैर कटवा दो में 3 दिन में ठीक हो जाऊँगा, राजा ने ऐसा नही किया तो मयूरभट्ट ने अपने सेवको को आदेश दिया की उसके स्वंय के हाथ पैर काटकर उसे देवी माँ के मंदिर में छोड़ दे। सेवकों ने उसके हाथ पैर काटकर उसे मंदिर में छोड़ दिया।
उसने देवी की कठोर साधना की देवी प्रसन्न हो गई और उसे ठीक कर दिया वो ठीक होकर राज दरबार में पँहुचा और कहा की देवी की कठोर साधना से उसके कटे हाथ पैर वापस जुड़ गए। राजा बहुत प्रसन्न हुआ।
राजा के दरबार में अधिकतम हिन्दू दरबारी थे सबने कहा की हमारा हिन्दू धर्म कितना शक्तिशाली है जैन के धर्म में तो कुछ भी शक्ति नही है। और इस तरह सब जैन धर्म का उपहास करने लगे।
उस सभा के सात कवियों में एक जैन कवि धनपाल था उससे ये उपहास बर्दाश्त नही हुआ उसने कहा जैन धर्म में बहुत शक्ति है लेकिन हमारे साधु संत उस शक्ति का प्रदर्शन नही करते है, इसी नगरी में हमारे एक आचार्य मानतुंगाचार्य आए हुए है उनके पास भी बहुत लब्धिया है । उनकी दृष्टि किसी पर पड़ जाए वे अपना हाथ किसी के सर पर रख दे तो व्यक्ति धन्य हो जाता है।
राजा भोज ने कहा ऐसा है तो उन्हें सभा में बुलाओ हम भी तो देखे उनके पास क्या शक्तियां है, धनपाल ने कहा की वो ऐसे बुलाने पर नही आते है वे अपनी मर्जी से आते है। किसी ने मसखरी में कह दिया वो नही आए तो उनके लिये पालकी भेज दी जाए।
राजा ने पालकी भेज दी उस वक्त आचार्य ध्यान में मग्न थे और दिन दुनिया से बेखबर थे, सैनिक उन्हें उठाकर पालकी में बैठाकर राजसभा में ले आए।
जब उनका ध्यान खत्म हुआ तो उन्होंने अपने आप को राजसभा में पाया, आचार्य ने राजा भोज से पूछा मुझे यँहा क्यों लाया गया है । राजा ने उसने जैनियों की भक्ति की शक्ति के बारे में पूछा तो आचार्य भगवन ने आदिनाथ भगवन ऋषभ देव के बारे में राजा भोज को बताया और बातों ही बातों में आचार्य के मुख से अनायास की निकल गया की चाहे कितने ही बन्धन में बाँध लो आदिनाथ की स्तुति से बन्धन कुछ नही बिगाड़ सकते है।
राजा तो चाहता ही यही था उसने कहा इन आचार्य को अड़तालीस कमरों के भीतर बन्द कर दो सब पर ताले जड़ दो इनके हाथ पैर को जंजीरों से बाँध दो और कालकोठरी में छोड़ दो देखते है बन्धन क्या नही बिगाड़ सकते है।
आचार्य जरा भी भयभीत नही हुए, उनके चेहरे पर वही शांति और निश्चिन्तता के भाव थे, उन्हें 48 तालों की काल कोठरी में बंद कर दिया गया।
उन्होंने काल कोठरी में पूरी श्रद्धा और भक्ति से प्रभु आदिनाथ के गुणों की स्तुति की और एक एक श्लोक की रचना करते गए एक एक श्लोक की रचना होती गई और एक एक ताला अपने आप टूटता गया। उन्होंने 48 श्लोक की रचना करी और 48 ताले टूट गए ।
राजा भोज आए और आचार्य से क्षमा याचना की आचार्य ने कहा अभी यह एक मुख्य ताला बाकी है आपके विद्वानों से कहिए की अपनी भक्ति की शक्ति से इस ताले को खोले सबने प्रयास किये लेकिन कोई उस ताले को खोल नही पाया।
फिर आचार्य ने चार श्लोक की और रचना करी और वो ताला भी टूट गया। राजा सहित सभी ने आचार्य से क्षमा माँगी और जैन धर्म की भक्ति की शक्ति को स्वीकार किया। आचार्य ने जो श्लोक की रचना करी वो भक्ताम्बर पाठ कहलाता है ।
जैन धर्म के सम्प्रदायों गच्छों चाहे कितना भी भेद हो लेकिन चाहे मंदिर मार्गी हो, स्थानकवासी हो, दिगम्बर हो या तेरापंथी हो भक्ताम्बर को सभी मानते है कँही पर 48 श्लोक और कँही पर 52 श्लोक है लेकिन भक्ताम्बर पर सबकी अटूट श्रद्धा और भक्ति एक समान है।
जैन सन्त कभी अपने चमत्कार का दिखावा नही करते है और न ही कभी अपनी लब्धियों का उपयोग करते है, उनकी लब्धि से सहज ही किसी का भला हो जाता है ।