रतलाम । नीमचौक स्थानक से जिनशासन प्रभाविका, ज्ञानगंगोत्री, मेवाड़ सौरभ उपप्रवर्तिनी बाल ब्रम्हचारी मालवकिर्ती पू.श्री किर्तीसुधाजी म.सा पर धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए कहाकि का पिता का साया आकाश है और माता का साया धरती है । सर से आकाश और पाँव से धरती निकल जाए तो जीना बहुत कठिन हो जाता है। इस दुनियां में लाखों करोड़ों अरबों खरबों आत्माए जन्म लेती है और मृत्यु को प्राप्त करती है, लेकिन कुछ विरली आत्माएँ ही ऐसी होती है जो अपना नाम अमर कर जाती है। ऐसे ही पूज्य गुरूदेव श्री सौभाग्यमलजी मसा एक व्यक्तित्व थे जिनका कल सोमवार को 37वाँ पुण्य स्मरण मनाया गया ।
आपका जन्म नीमच के पास सरवानिया गाँव में हुआ था। माता केशर बाई पिता चौथमलजी, बचपन में ही पिता का साया सर से उठ गया और माता की स्थिति भी बहुत नाजुक थी, बालक अनाथ हो गया लेकिन खाचरौद निवासी मयाचन्द खमेसरा उन्हें खाचरौद लेकर आ गए। खाचरौद में श्री नन्दलाल जी,ताराचंद जी किशनलालजी मसा पधारे । गुरुओ का सानिध्य मिल गया, उनके सानिध्य ने उनके जीवन की दिशा बदल दी, 12 वर्ष की उम्र में उन्होंने जैन भगवती दीक्षा अंगीकार की ।
विनय से उन्होंने गुरू का दिल जीत लिया । संस्कृत प्राकृत उर्दू आदि कई भाषाओं पर उन्होंने अधिकार जमाया । वे वाणी के जादूगर थे, कोई कितनी भी प्रतिकूल बन कर उनके पास जाता तो वे उसे अनुकूल बना लेते थे। श्रमण संघ के निर्माण में उनका बहुत महत्वपूर्ण योगदान था। गुरुदेव किशनलाल जी मसा का स्वास्थ्य खराब था लेकिन उन्होंने सौभाग्यमल जी मसा को साधु सम्मेलन में भाग लेने के लिये भेजा। सौभाग्यमल जी मसा गुरू को ऐसी हालत में छोड़कर जाना नही चाहते थे, लेकिन गुरु की आज्ञा को उन्होंने टाला नही जैसे अंतिम समय में प्रभु महावीर ने गौतम स्वामी को एक ब्राह्मण को जिनवाणी सुनाने के लिये भेज दिया था वैसे ही ये भी हुआ। ठंडी के मौसम में वे उग्र विहार करके अजमेर साधु सम्मेलन में पँहुचे। श्रमण संघ का निर्माण होने वाला था। अनेक सम्प्रदायों को एक करना था।
मरुधर केसरी मिश्रीमल जी मसा, जैन दिवाकर श्री चौथमल जी मसा, मालव केसरी सौभाग्यमल जी मसा को संघ एकता की कमान सौंपी गई। पूज्य गुरुदेव आनन्द ऋषि जी और सौभाग्यमल जी आदि संतो ने कई सन्तो से चर्चा करी और श्रमण संघ का निर्माण सम्भव हो पाया।
आपका विहार, मालवा, मेवाड़, महाराष्ट्र, दक्षिण के कई प्रांतों में हुआ, मुम्बई नासिक में आपने 13 चातुर्मास किये वँहा के श्रावक आपके अनन्य भक्त है जो आज भी नियमित रतलाम में आपकी समाधि पर आते है। जीन शासन की उन्होंने बहुत सेवा की ।
आपने कई चरित्र की रचना की आचारांग सूत्र का अनुवाद विवेचन सहित किया। उस महान आत्मा की श्रमण संघ पर कृपा दृष्टि बनी रहे। अति शीघ्र वे सुखालय से शिवालय की और अपने कदम बढ़ाए । पूज्य श्री आराधनाश्री जी म सा ने राष्ट्र सन्त आचार्य भगवन पूज्य श्री आनन्द ऋषिजी मसा के जीवन चरित्र को प्रारम्भ करते हुए फरमाया की कोई भी महापुरूष ऐसे ही महापुरुष नही बनता है, कितने ही पतझड़ का सामना करना पड़ता है । मानव हर किसी के प्रति मस्तक नही झुकाता है, उसकी श्रद्धा ऐसे ही गहरी नही होती है, जब कुछ मिलता है तभी किसी के प्रति शीश झुकता है। जिन्होंने आनन्द को जिया, आनन्द को पाया और आनन्द को बाँटा । माँ की कुक्षी में आए तो माँ को आनन्दित किया, गुरू के पास गए तो गुरू को आनन्द दिया, जिनशासन में आनन्द बाँटा । उन्होंने गुरू के द्वारा दिये गए नाम को केवल नाम ही नही रहने दिया बल्कि उस नाम को मन्त्र बना दिया। आनन्द गुरुवे नम: उनके लाखों भक्त इस मंत्र का जाप करते है। महाराष्ट्र के गाँव चिंचोड़ी में गुगलिया परिवार में माता उलसा पिता देवीचंद के यँहा बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में श्रावण मास के दूसरे पखवाड़े में बालक ने जन्म लिया नाम रखा गया नेमीचंद, बालक के मुखड़े का तेज देखकर माँ बहुत आनन्दित हुई । पिता देवीचंद भी देवता पुरुष थे, गाँव के लोग उनका विशेष सम्मान करते थे, गाँव के लोगों के विवाद का निपटारा वो करते थे। धर्म ध्यान में आगे रहते थे, साधु संतों की सेवा में तत्पर रहते थे। बालक का गोलमोल चेहरा था इसलिए उसे प्यार से गोटीराम भी कहते थे। माता ने बच्चों को सुसंस्कार प्रदान किये थे, सुबह सुबह माँ के नवकार मन्त्र की ध्वनि घर में गूंजती तो बालक गोटीराम भी नवकार में रम जाता था।
नेमीचंद 3 संतानों में सबसे छोटी संतान थी, भाई उत्तम चंद थे और बहन का विवाह हो गया था । घर में माता पिता और 2 भाई आराम से रहते थे । लेकिन एक दिन बालक को पिता स्कूल छोडऩे गए और घर आकर अचानक पेट में दर्द हुआ और वैध को दिखाने के पूर्व ही वो चल बसे । बालक सोचता है की ये संसार कितना असार है। अभी तो पिताजी अच्छे भले थे और ये क्या हो गया। इस तरह प्रथम बार उनके बालमन में वैराग्य का बीज पड़ा । दु:ख का कितना भी पहाड़ टूट जाए लेकिन इंसान को कर्तव्य पथ से डिगना नही चाहिए, पिता के बाद भी माता ने बच्चों को बहुत अच्छे से संस्कार दिए और माता ने भी पिता की ही तरह गाँव में अपनी साख जमाई । एक बार नेमीचंद माँ के साथ पड़ोस के मौसी के गाँव हिवड़ा में गए। वँहा पर महासती रत्नकुंवर जी मसा विराजमान थे, माँ प्रतिदिन प्रवचन में जाती साथ में बच्चों को भी ले जाती, साध्वी जी भजन बहुत अच्छे गाती थी और नेमीचंद को भी गाने का शौक था उन्होंने विनयपूर्वक महासती जी से भजन सीखा और जब भरी सभा में अपनी मधुर और ओजस्वी आवाज में बालक ने भजन गया तो सभासद उसकी प्रतिभा को देखकर विस्मित हो गए । भजन गाने का उन्हें बचपन से ही शौक था, सन 1930 में साधु सम्मेलन में 250 साधुओं में उन्होंने भजन में प्रथम स्थान प्राप्त किया था।
मौसी के गाँव से वो माँ के साथ तांगे से वापस लौट रहे थे, बालक आगे बैठा था, लेकिन उसका सन्तुलन बिगड़ा और वो तांगे से नीचे गिर गया और तांगे का पिछला पँहिया उसके ऊपर से होकर निकल गया, माँ चीखती हुई उतरी और बालक को संभाला लेकिन बालक को एक खरोंच तक नही आई, इस पर उलसा माँ ने कहा बेटा हम आता वक्त मसा से मांगलिक सुनकर आए उस मांगलिक ने तेरी रक्षा करी है, पिता की मृत्यु के समय जो बीज पनपा था इस घटना ने उस बीज में खाद पानी का काम किया । उसने सोचा की मांगलिक सुनने मात्र से यदि काम सफल हो जाए तो मुझे तो मांगलिक सुनना नही ग्रहण ही कर लेना चाहिए । इस प्रकार धर्म के प्रति उसकी श्रद्धा बढ़ती गई, वैराग्य के अंकुर फूटने लगे।
गाँव में पंडितरत्न श्री रत्नऋषि जी मसा पधारे, माँ के साथ बालक भी प्रवचन और दर्शन करने नियमित जाने लगा । माँ ने बालक को गुरूदेव से प्रतिक्रमण सीखने के लिए प्रोत्साहित किया। रत्नऋषि जी मसा उसे प्रतिक्रमण की पाटी देते बालक तुरन्त सुना देता, गुरुजी ने पूछा की प्रतिक्रमण पहले से याद है क्या इस पर बालक ने कहा नही शाम को श्रावक बोलते है तो वह सुनता हूँ, इतनी तीक्ष्ण बुद्धि थी। रत्नऋषि बालक से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने माँ से भिक्षा के रूप में नेमीचंद को मांग लिया, माता बोली ये तो मेरे जीवन का सहारा है इससे मुझे बहुत उम्मीदे है ये मेरे कुल की शान है, परिवार का सितारा है ये कहते कहते माँ की आँखे भर आई, लेकिन गुरुवर ने पहली बार कुछ माँगा है इंकार कैसे कर दूँ।
गुरू ने कहा तेरे दो पुत्र है एक पुत्र उत्तम चंद को तेरे और परिवार के लिए रख ले और इस बालक को जीनशासन के लिए सौंप दे, ये परिवार का नही पूरे जीनसाशन का सितारा बनेगा। माँ कहती है आप कहते है तो मना नही करूँगी लेकिन पहले बालक से तो पूछ लीजिये। गुरू जी पूछा हमारे साथ चलोगे तो बालक कहता है माँ की आज्ञा होगी तो जरूर चलूँगा। अब आगे कैसे दीक्षा होती है क्या क्या घटनाक्रम होता है आगे सुनने पर पता चलेगा।