जैन दिवाकर वाणी – जैन साधु बन कर देखे

जहां तक जैन साधु का प्रश्न है,कोई जैन साधु बन कर देखे तो पता चले कि साधुपना पालना सरल है या कठिन है।वर्ष में दो बार लोच कर ने में ही खबर पड़ जाती है। यह भी कोई मामूली बात नहीं है।किसी का चरित्र उत्तम न हो या कोई सिर्फ जीवन निर्वाह के लिए साधु का वेष धारण कर ले, यह बात दूसरी है। मगर जिसने आत्मा के कल्याण के लिए गृह त्याग किया है और साधु का वेष धारण किया है,वह भगवान की आज्ञा के अनुसार व्यवहार करता है। भाइयों ! संसार में तरह – तरह के लोग हैं। श्रावकों में भी सब समान नहीं होते। कई श्रावक माता- पिता के समान होते है, कई मित्र के समान होते हैं, कई भाई के समान होते हैं और कई सौत के समान भी होते हैं।जो माता – पिता, भाई या मित्र के समान होते हैं, वे समय पर साधु को यथोचित चेतावनी और शिक्षा देते हैं, किंतु जो सौत के समान होते हैं, वे ईर्ष्या – द्वेष का भाव रखते हैं और निंदा करते हैं, विज्ञापन छपवा -छपवा कर निंदा फैलाते हैं और जब साधु चले जाते है तो उन्हें पहरावणी देते हैं।(वर्तमान में भी उतना ही प्रासंगिक ।)
साभार – जैन दिवाकर ज्योतिपुंज खंड 3/55
प्रवचन – 30.10.1948
प्रस्तुति – सुरेंद्र मारू इंदौर