गुजरात के इतिहास में, महामनीषी श्वेतांबर जैनाचार्यों की सूची में और संस्कृत- प्राकृत साहित्य के पुरोधाओं में कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य नाम अमर है

कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य के जन्मस्मृति दिवस कार्तिक पूर्णिमा पर विशेष आलेख

परम पूज्य श्रीमद् हेमचंद्राचार्य जी महाराज उन महापुरुषों में से हैं जिन्होंने कि गुजरात के स्वर्णकाल माने जाने वाले समय के निर्माण में बहुमूल्य योगदान दिया। गुजरात के इतिहास में, महामनीषी श्वेतांबर जैनाचार्यों की सूची में और संस्कृत- प्राकृत साहित्य के पुरोधाओं में उनका नाम अमर है। वे आज से 930 साल पहले, गुजरात के खंभात प्रांत के धुंधका नगर में कार्तिक मास की पूर्णिमा के पवित्र दिन अवतरित हुए थे। उनकी मां पाहणदेवी थीं। वे एक अत्यंत प्रखर बुद्धि वाले, तेजस्वी एवं शशि समान कांतिवान बालक थे।उनकी प्रतिभा को पहचान कर जैन संघ के प्रसिद्ध आचार्य श्री अभयदेवसूरि के शिष्य प्रकांड विद्वान श्री देवचंद्र सूरि आचार्य ने उन्हें 9 वर्ष की आयु में ही दीक्षा संस्कार प्रदान कर दिये थे।अपने गुरु की भविष्यवाणी के अनुरूप ही कालांतर में वही प्रतिभाशाली बालक कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्रीहेमचंद्र जी सूरि बना। उनका समय ईस्वी सन् 1088 – 1173 के बीच रहा। हेमचंद्रजी के दीक्षागुरु, शिक्षागुरु या विद्यागुरु थे। वे बचपन से ही एक कुशाग्र बुद्धिवाले प्रतिभाशाली मनीषी थे। शीघ्र ही वे भाषा, व्याकरण, दर्शन, योग और अध्यात्म के महापंडित बन गये। अपनी अप्रतिम प्रतिभा के दम पर पहले वे गुर्जर नरेश महाराज सिद्धराज जयसिंह और उनके बाद फिर सम्राट कुमारपाल, दोनों के ही मार्गदर्शक और राजगुरू रहे। दोनों के ही राजदरबार में उनका बड़ा सम्मान था।श्री हेमचंद्राचार्य के परम शिष्य दूरदर्शी इतिहास पुरुष वीर श्री उदयन जी मेहता (जैन) भी दोनों ही सम्राटों के समय काल में महामंत्री रहे थे।
यहां यह उल्लेखनीय है कि महाराज कुमारपाल राज परिवार की वंशबेल से तो थे, पर उनको गुजरात नरेश सिद्धराज उनकी माता के उच्चवंश के न होने के कारण पसंद नहीं करते थे और अंतत: वे उनकी जान के दुश्मन भी बन गये थे। उस कठिन समय में खंभात के सूबेदार सनतू (शांतनु) मेहता ने आचार्य श्री हेमचंद्र के निदेशन का पालन कर, बड़े ही साहस और कौशल से कुमारपाल की अज्ञातवास में जीवन रक्षा की और प्रत्येक प्रकार से उनकी सहायता भी की। यह तो श्री हेमचंद्राचार्य जी की ही भविष्यवाणी थी जो कि उन्होंने काफी समय पहले बता दिया था कि कुमारपाल एक बार गुर्जर साम्राज्य के अधिपति अवश्य बनेंगे।विभिन्न आपदाओं को झेलते हुए कुमारपाल जी अंत में 50 साल की उम्र में गुजरात के अधिपति बन ही गये। इस तरह की अन्य भविष्यवाणियों के साक्षात फलीभूत होते देखकर ही सम्राट कुमारपाल ने उन्हें कलिकाल सर्वज्ञ के सम्मान से नवाजा था। सम्राट कुमारपाल ने उनके मार्गदर्शन में आजीवन जैन धर्म का उत्कृष्ट चर्या से पालन किया था। वे एक ऐसे अहिंसा पालक सम्राट थे जिनके राज्य में घोड़ों को भी पानी छानकर पिलाया जाता था, इस तरह का उल्लेख जैन इतिहास ग्रंथों में पाया जाता है। सरस्वती के मानस पुत्र पूज्य श्री हेमचंद्राचार्य उच्चकोटि के कवि थे, काव्य-शास्त्र के आचार्य थे, योगशास्त्र के मर्मज्ञ थे, जैन धर्म और दर्शन के प्रकांड पंडित थे, तथा एक विशिष्ट टीकाकार थे। वे नाना भाषाओं के कुशल मर्मज्ञ, उनके व्याकरणकार तथा बहुभाषाओं के विशिष्ट कोशकार भी थे। संस्कृत कोशकारों में हेमचंद्र का विशेष महत्व है।उनकी व्याकरणपरक रचनाओं में शब्दानुशासन तथा गुर्जराधिपति सिद्धराज के समय रचित सिद्धहेम शब्दानुशासन अति प्रसिध्द हैं। इस ग्रंथ के पूरा होने पर,उस समय की राजधानी अनिहल्लपाटन (पाटन)में बड़ा भारी राज्योत्सव भी मनाया गया था। सिद्धहेम शब्दानुशासन में संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश तीनों को सम्मिलित किया गया। साथ ही उन्होंने पूर्वाचार्यों के ग्रंथों का अनुशीलन करके, एक सरल व्याकरण की रचना कर संस्कृत-प्राकृत दोनों ही भाषाओं को अनुशासित किया। श्री हेमचंद्राचार्य जी ने अथक परिश्रम से नूतन पंचांग व्याकरण भी तैयार किया। संस्कृत में अनेक कोशों की रचना केयसाथ साथ उन्होंने प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाकोश- देशीनाममाला का भी संपादन किया। अभिधान चिंतामणीनाममाला उनके द्वारा रचित प्रसिद्ध पर्यायवाची कोश है। इसके छह कांड है जिनका प्रथम कांड सिर्फ जैन देवों और जैनमतीय या धार्मिक शब्दों से संबद्ध है।
प्रमाणमीमांसा- आचार्य प्रवर श्री हेमचंद्र जी द्वारा प्रसूत एक अपूर्व दार्शनिक ग्रंथ है। कालांतर में इसका संपादन प्रज्ञाचक्षु पंडित सुखलालजी द्वारा पूरा हुआ। प्रमाणमीमांसा ग्रंथ से संपूर्ण भारतीय दर्शनशास्त्र के गौरव में अतीव अभिवृद्धि हुई है, ऐसा मत प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वानों ने व्यक्त किया है।
उनके द्वारा रचित योगशास्त्र ग्रंथ योगशास्त्रनीति विषयक जैन संप्रदाय का धार्मिक एवं दार्शनिक, उपदेशात्मक, अध्यात्मोपनिषद मौलिक ग्रंथ है। इस ग्रंथ के द्वारा आचार्य ने गृहस्थ जीवन में आत्म साधना की प्रेरणा दी तथा पुरूषार्थ के लिए प्रेरित किया। स्वावलंबन पर केंद्रित उनका योगशास्त्र ग्रंथ विषय, शैली और वर्णन क्रम में पतंजलि के योगसूत्र से भिन्न है, जो कि उनके विशद योग विद्या ज्ञान का परिचय देता है। उनके द्वारा रचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरि एक पुराण काव्य है। उनकी अन्य रचना वीतरागस्तोत्र‘ का संस्कृत स्तोत्र साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। एसे ही व्याकरण, इतिहास और काव्य का तीनों का वाहक द्ववाश्रय काव्य उनकी अपूर्व रचना है।विभिन्न विधाओं में रचित उनके विपुल साहित्य के कारण उनको साहित्य-सम्राट भी कहा गया है।
गुरुदेव श्री हेमचंद्राचार्य जी ने अपनी विशिष्ट अपूर्व ग्रंथों की रचनाओं के द्वारा भक्ति के साथ साथ श्रमण धर्म तथा साधना युक्त आचार धर्म का प्रचार भी किया। सात्विक जीवन से दीर्घायु बनने के उपाय बताये। सदाचार पालन से आदर्श नागरिक निर्माण कर समाज को सुव्यवस्थित करने में अपूर्व योगदान दिया।
उनकी प्रेरणा के कारण ही सम्राट कुमारपाल जी ने सोमनाथ का जीर्णोद्धार करवाया था। गिरनार पर्वत के अद्भुत जिनालय, श्री तारंगाजी का प्रसिद्ध जैन मंदिर इत्यादि की रचना भी सम्राट कुमारपाल के समय में गुरूदेव के संबोधन, निदेशन और प्रेरणा से संपन्न हुये थे। सच्ची बात तो यह है कि गुजरात का स्वर्णकाल और जैनों का स्वर्णकाल एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। जैन धर्म में समाहित सर्व-धर्म समभाव की नीति का पालन कर ही गुजरात स्वर्णकाल में पंहुच सका था। इस तरह गुजरात के चतुर्दिक उत्थान में गुरूदेव का योगदान अविस्मरणीय है।
एक विवरण के अनुसार परम पूज्य हेमचंद्राचार्यजी के राजप्रभाव एवं अपूर्व प्रतिष्ठा के कारण जैन धर्म से द्वेष रखने वाले राज परिवार के ही एक सदस्य ने उन्हें विष दे दिया था। पर जैन धर्म के उत्कृष्ट अध्येता, क्षमाशील गुरूदेव श्री हेमचंद्राचार्य जी ने इस महा उपसर्ग की घड़ी में भी पूर्ववर्ती आचार्यों के मार्ग का अनुशरण कर उच्चकोटि के समता भावों को धारण किया तथा पाटन नगर में मृत्यु शैय्या पर पड़े-पड़े भी उन्होंने उस विषपान कराने वाली दुष्टआत्मा को प्राणदान देने का वचन सम्राट कुमारपाल से गुरुदक्षिणा के रूप में ले लिया था एवं उस पापी के प्राणों की रक्षा की थी।धन्य-धन्य हैं परम पूज्य दादा गुरूदेव श्री हेमचंद्राचार्य जी जिन्होंने कि जीवन पर उपसर्ग को सहन कर अंत समय तक उत्कृष्ट श्रमण चारित्र का पालन किया और जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया। उनके स्वर्गवास होने पर सम्राट कुमारपाल उनके वियोग में इतने विह्वल हो गये थे कि फिर वे भी कुल छह माह ही जीवित रह सके थे। शिष्य की अपने गुरू के प्रति अगाध अनुराग की यह स्मृति कथा भी इतिहास के पन्नों में अमिट है। कार्तिक पूर्णिमा के पावन दिवस पर मैं महान सरस्वती मानसपुत्र, विशदज्ञान के धारक, राजनीति विशारद, व्याकरण सर्जक, जिनधर्म प्रभावक कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य जी* के चरणों में विनय पूर्वक कोटि-कोटि नमन करता हूं।

  • नीलमकांत.जीवमित्र मो. 9910378087